Monday, December 29, 2014

लोकप्रिय सिनेमा की अपनी शर्तें हैं



ये महज़ इत्तेफ़ाक ही था कि पी.के. देखने से एक दिन पहले दैनिक भास्कर की वेब साईट पर ‘ऑस्ट्रेलियन दुल्हन लाया बिहार का बेटा’ जैसे किसी शीर्षक पर नज़र पड़ गयी. रिपोर्टिंग के अंदाज़ से यूं लगा कि बिहार ने कोई मेडल जीता है. फिर एक सवाल कौंधा कि अगर बिहार की बेटी ने ऑस्ट्रेलियन दूल्हा ढूंढ लिया होता तो खबर कैसी होती? ये खबर होती भी या नहीं? क्या वजह है कि लव जिहाद की तमाम लफ्फाजियों के बीच हिन्दू नायिका के मुसलमान नायक से ब्याह के उदाहरण हमारे हिन्दी सिनेमा में विरले हैं, इसका उलटा भले ही मिल जाय. पी.के. से पहले ‘टोटल सियापा’ में ही शायद ये घटना हुई है.
इस प्रगतिशीलता के बावजूद अनुष्का के उभरे होंठ खटकते हैं. वो जब नई- नई आयीं थीं तो उन्हें आदित्य चोपड़ा ने कहा था कि ‘तुम बहुत खूबसूरत नहीं हो, इसलिए कम से कम एक्टिंग तो अच्छी करना.’ सौन्दर्य में एकरसता को बढ़ावा देने में आलोचना जनित हीन भावना और कॉस्मेटिक सर्जरी का याराना है. विविधताओं को सेलिब्रेट करने की बात हमारे सौन्दर्य मानकों पर लागू नहीं होती. एक और इत्तेफाक़ के तहत मेरी बुक शेल्फ़ में अगले साल आ रहे अमान्डा फ़िलिपाकी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘द अनफार्चुनेट इम्पोर्टेंस औफ़ ब्यूटी’ का इंतज़ार हो रहा है जो सौन्दर्य मानकों के बारे में हमारी जड़ता पर सवाल उठाता है. हमारी हीरोइनों की लिप/नोज़ सर्जरी (जिसकी खबर का हमेशा खंडन ही होगा) इस सवाल पर सवाल है.
पी.के. फ़िल्म की शुरुआत में ही हीरो-हिरोइन बच्चन की कविता सुनने की तिकड़म भिड़ाने लगते हैं और आप ये सोचने पर मजबूर होते हैं कि इसकी वजह सचमुच हरिवंशराय जी कि कवितायेँ हैं या फिर उनका ‘बच्चन’ होना? वैसे भी मुख्यधारा में लोकप्रियता हमेशा सरलीकरण की शर्त पर ही मिलती है. हिन्दी कवि को सिनेमा में पहचान अमिताभ बच्चन पैदा करने की शर्त पर मिलती है, मैरी कौम को प्रतिनिधित्व प्रियंका चोपड़ा दिखने की शर्त पर मिलता है और भोजपुरी को जगह बड़े सितारों द्वारा एप्रोप्रिएशन की शर्त पर मिलती है. पी.के. की भोजपुरी उतनी ही कच्ची है जितनी कि उसमें शामिल प्रेम कहानी, आमिर का लहजा वैसा ही सतही है जैसे आर्चीज़ से खरीद कर मनाई क्रिसमस की खुशियाँ.
फ़िल्म पर विवाद इसके पोस्टर की रिलीज़ से ही शुरू हो चुका था. नग्नता का उपयोग कला या फिर धर्म में नया नहीं है. आमिर के चरित्र की नग्नता उसकी शुद्धता और इस दुनिया के चाल चलन से अछूते होने का प्रतीक है जो कि फ़िल्म देखने पर ही समझ आ सकता है. पर हमारे पास इतना धैर्य कहाँ था? हमने पोस्टर का कनेक्शन कामोत्तेजना और अश्लीलता से ही जोड़ा जो कि हमारे दिमाग में नग्नता के साथ जोड़ी बनाकर जम चुका है. इस तरह से पी.के. के नंगे एलियन ने हमारे समाजीकरण की प्रक्रिया और जमी-जमाई मान्यताओं पर प्रहार अपने पोस्टर रिलीज़ के समय से ही करने शुरू कर दिए थे.
पर पोस्टर में दिखी संभावनाओं के बावजूद ये एक बेहद साधारण फ़िल्म है. आडम्बर और धर्म के धंधे के ख़िलाफ़ दिए गए तर्क न ही नए हैं और न ही बहुत गहराई तक जाते हैं. हम इन्हें इससे बेहतर और पैने रूप में ‘ओह माई गॉड’ में देख चुके हैं. इस तरह से ये फ़िल्म ओह माई गॉड की अगली कड़ी होने के बजाय उसके बराबर या पीछे ही खड़ी दिखती है. एलियन का कांसेप्ट ज़रूर अनोखा है. हम अपने सामाजीकरण में इतने धंस चुके हैं कि एक उदासीन साक्षी भाव से अपने समाज को देखने के लिए शायद हमें एलियन जितना ही दूरस्थ होना ज़रूरी है. आडम्बर की आलोचना शायद उसकी उत्पत्ति जितनी ही पुरानी है लेकिन फिर भी धर्म का धंधा बदस्तूर जारी है. इसके कारणों की तह तक जाने की कोशिश ‘ओह माई गॉड’ के बाद पी.के. ने भी नहीं की. इंसान के दुखों को धर्म की उत्पत्ति और आडम्बरों को मनोवैज्ञानिक इलाज बताने की ज़रा सी कोशिश फ़िल्म करती है लेकिन ‘तपस्वी जी’ के ज़रिये जो कि फ़िल्म का खलनायक है. दरअसल धर्म के अस्तित्व की पोषक ही जीवन की अनिश्चितताएं हैं जिनका जवाब अक्सर विज्ञान के पास भी नहीं होता. धर्म दुःख मिटा नहीं सकता पर उन्हें भगवान की देन बताकर पीड़ा कुछ कम कर देता है. इसलिए बरकरार है और शायद इसीलिये ये फ़िल्में भी भगवान के अस्तित्व पर सीधे वार करने से बचती हैं.
फ़िल्म पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप उतना ही बचकाना है जितनी आमिर के चरित्र की हरकतें. ये सही है की फ़िल्म में सभी अच्छे- बुरे पात्र ज़्यादातर हिन्दू हैं. लेकिन ये तो लोकप्रियतावादी सिनेमा का कड़वा सच है. हिन्दी फिल्मों के पात्र डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी हों साथ में बड़ी सहजता से ऊंची जाति के हिन्दू पुरुष ही रहें हैं. दूसरा कोई भी धर्म फ़िल्म को सेक्युलर दिखाने के वास्ते दाल में नमक जितना ही आता है. फिर पी. के. में ऐसा होना हमें असहज क्यूं कर रहा है?
सिर्फ़ आडम्बर विरोधी होने के लिए फ़िल्म की तारीफ़ करनी हो तो अलग बात है, वरना फ़िल्म सफ़ेद रंग पहने विधवा का उदास दिखने जैसे स्टीरियोटाइप से लेकर तुरंत ही सफ़ेद कपड़ों में सजी ईसाई दुल्हन का पी.के. के सामने आने जैसे फ़िल्मी संयोगों से भरी पड़ी है. हालांकि इस अति सरलीकरण का एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि फ़िल्म उसी वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है जो बाबाओं के चमत्कार पर निछावर होता है और ‘हैप्पी न्यू इयर’ को करोड़ों की कमाई करवाता है. बाकी धर्म और हिन्दी सिनेमा में ज़्यादा फर्क नहीं है. दोनों में तर्क का इस्तेमाल बिज़नेस के लिए हानिकारक है!

(पी. के. पोस्टर विवाद पर लिखा गया लेख- 'नग्नता की शुद्धता और शौक वैल्यू' http://shwetakhatri.blogspot.in/2014/08/blog-post.html)