Thursday, November 27, 2014

ए.एम्.यू. लाईब्रेरी: जेंडर और स्पेस के कुछ सवाल






निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.

वी.सी. के मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में लड़कियों को आने देने की मनाही के आधे-अधूरे बयान को सुनकर उन पर लिंगभेदी होने का आरोप लगा जो कि आजकल एक संगीन लांछन है. जबकि ये पॉलिसी विश्विद्यालय में काफ़ी समय से है, साथ ही स्नातक तक की छात्राओं के लिए अलग बैठने- पढ़ने की व्यवस्था है. वी.सी. न ही लड़कियों के मामले में गैर- संवेदनशील हैं न ही ये नीति अपने-आप में लिंगभेदी है, कम से कम सक्रिय तौर पर तो नहीं. लेकिन एक बड़ा सवाल जेंडर और स्पेस का है जिसकी जड़ें लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय परिसर से बाहर के समाज में हैं.

समय का चक्र और स्पेस का फैलाव दोनों अपने-अपने तरीके से लिंगभेदी हैं. शाम को धुंधलके के बाद और बस स्टॉप या बैंक जैसी सार्वजनिक जगहों पर लड़कियां कम ही दिखाई देतीं हैं. चंद महानगरों को छोड़ दें तो कालचक्र और स्पेस के इस लिंग आधारित विभाजन का शायद ही कोई अपवाद है. अपनी खुद की कस्बाई परवरिश के अनुभवों से कहूं तो पब्लिक स्पेस लड़कियों के लिए नहीं हैं. यहाँ होने का मकसद उन्हें साफ़-साफ़ जताना होता है कभी अपनी स्कूल यूनिफार्म तो कभी किसी पुरुष के साथ के ज़रिये. ऐसे में लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना आसान बात है बजाय उन्हें पब्लिक स्पेस में पुरुषों जितना ही सहज कर पाना. ये एक अजीब विरोधाभास है- लड़कियां सार्वजानिक जगहों पर जितनी ज्यादा दिखेंगी, उनकी उपस्थिति उतनी ही आम बात होगी. फ़िलहाल उनकी नगण्य उपस्थिति ही इक्का- दुक्का लड़कियों की उपस्थिति को और भी विशिष्ट बना देती है. ये बात उन लड़कियों को चर्चा का केंद्र बनाकर असहज करने के लिए काफ़ी है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि वी.सी. के लड़कियों के माता-पिता से चिट्ठी लिखकर पूछने पर कि ‘क्या वो अपनी बेटी को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में जाने देना चाहते हैं’, सिर्फ़ एक जोड़ा माँ- बाप ने सकारात्मक जवाब दिया.

ऐसे मामलों में नीति निर्धारकों को एक समझौता करना पड़ता है- या तो यथा स्थिति रहने दें या फिर लड़कियों को उनकी अलग जगह देकर कम से कम उन्हें बाहर लाने की एक पहल करें. ज़ाहिर है कि दूसरा रास्ता ही ज्यादा तर्कसंगत है. अलग लाइब्रेरी, मेट्रो में पहला कोच, लेडीज़ बस, महिला पुलिस चौकी और अब आगामी महिला बैंक सब इसी समझौते के अलग- अलग रूप हैं. ये लिंगभेद नहीं बल्कि उसे ख़त्म करने की एक रणनीति भर है. पर दुर्भाग्य से ये नीतियाँ ऐसी दर्दनिवारक दवा बन गयी हैं जिसे खा कर हम अपनी असली बीमारी भूले बैठे हैं. हमारा अंतिम लक्ष्य तो पब्लिक स्पेस में लड़कियों को पूरी तरह समाहित करना ही होना चाहिए था. लेकिन स्पेस विभाजन की नीतियाँ अपनी लोकप्रियता के चलते एक तरह का सुविधाजनक नारीवाद बन गयी हैं. जिन्हें लागू करके कोई भी जेंडर सेंसिटिव नज़र आ सकता है और वाहवाही बटोर सकता है.

उसी तरह से जहां प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में लाने की हो, जहां माता- पिता भी अलग पुस्तकालय की व्यवस्था से ज्यादा सहज महसूस करते हों. वहां विश्वविद्यालय के ऐसा करने पर हाय-तौबा क्यूँ? वी. सी. वही कर रहें हैं जो उनके पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है. मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी पब्लिक स्पेस का ही एक टुकड़ा है, एक संसाधन है जिसका आवंटन वो सामाजिक सन्दर्भों से कटकर नहीं कर सकते. अगर खेल के नियम ही गड़बड़ हों तो उस खिलाड़ी जो क्यों दोष दें जो नियमानुसार खेल रहा है?

एक संसाधन के रूप में समय-स्थान को देखना साथ ही जेंडर के साथ इनका समीकरण समझना दरअसल कभी ज़रूरी नहीं समझा गया. इस समस्या की भी पेचीदगी वही है. स्पेस और समय दोनों ही एक तरह से बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं. इनका फ़ायदा वही उठा सकता है जिसको इनका बेरोक-टोक इस्तेमाल करने की आज़ादी है. जिन पर बंदिशें हैं वो नुकसान में हैं. फ़र्ज़ कीजिये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कोई हाई प्रोफ़ाइल नौकरी है जिसके लिए सुदूर इलाकों में रात- बेरात सफ़र करने की ज़रुरत है. ऐसी नौकरी के लिए समान क्वालिफिकेशन होने पर भी लड़कों को वरीयता दी जायेगी क्यूंकि सामाजिक परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं. समय और स्थान रूपी संसाधनों में असीमित पैठ पुरुष का प्रिविलेज है ऐसे में उन्हें उस पद  विशेष के लिए पुरुष ही ज्यादा उपयुक्त लगेगा. अब उस नौकरी देने वाली कंपनी को लिंगभेदी कहा जाय या समाज को?
अब सवाल यही है कि यथास्थिति को बदलने की पहल कौन करे? ये जोखिम कौन उठाए? इस लाइब्रेरी में लड़कियों की मनाही सीमित जगह की समस्या हल करने का तरीका है लड़कियों के लिए अलग लाइब्रेरी भी सामाजिक परिवेश देखते हुए वाजिब व्यवस्था लगती है. न माता- पिता ऐसी पहल कभी करेंगे और विश्विद्यालय के पास तो लड़कियों की सुरक्षा का एक सर्वव्यापी और सर्वमान्य बहाना है ही. किसी भी सन्दर्भ में लड़के- लड़कियों का मुक्त रूप से मिल पाना हमारे समाज के लिए गाहे- बगाहे चिंता का विषय बन ही जाता है. लेकिन सवाल माता- पिता की अनुमति से परे छात्राओं की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का भी है. संसाधनों की कमी और अभिभावकों की अनिच्छा को कब तक उन्हें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी से वंचित रखने का बहाना बनाया जा सकता है? गौरतलब है कि लाइब्रेरी में प्रवेश की मांग छात्राओं की तरफ़ से ही आयी थी. उसके बाद वी.सी. साहब ने मानव संसाधन मंत्रालय से लाइब्रेरी का स्पेस बढ़ाने के लिए अनुदान माँगा है जिससे ज्यादा छात्राओं को भी सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जगह दी जा सके. वी.सी. पर ज़्यादा से ज़्यादा यथास्थिति बने रहने देने का इल्ज़ाम लगाया जा सकता है इसे पैदा उन्होंने नहीं किया. ये ज़रूर है की महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग जो शायद बदलाव की पहल करने का माद्दा रखते हैं उनका आत्मसंतोष अक्सर प्रगति में बाधक होता है. और जेंडर के आधार पर समानता फ़िलहाल प्रगति और मानवाधिकार विकास का पर्याय बन चुकी है. 
खबर आ रही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में वी.सी. के ख़िलाफ़  दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने लड़कियों को सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सदस्यता दिए जाने के आदेश दिए दे हैं. वी.सी. साहब का बयान उसके सन्दर्भ के साथ देखा जाय तो नारी विरोधी नहीं था लेकिन सेंट्रल लाइब्रेरी के दरवाज़े लड़कियों के लिए खुलना निश्चय ही लैंगिक समानता की दिशा में अगला कदम है. 

हमें बीमारी का कोई लक्षण दीखते ही जड़ तक जाने के बजाय लक्षण पर वार करने की आदत बन गयी है, किसी सर्वव्यापी समस्या का दोष मढने के लिए बलि का बकरा तलाशने की प्रवित्ति है ताकि अपनी ग्लानि और ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जा सके. कम से कम भारत में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में देर रात रिसर्च लैब में बैठने से लेकर हॉस्टल से देर रात गए बाहर रहने के मामले में लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग नियम हैं. ये सब अलग पुस्तकालय की तरह ही समय और स्पेस के संसाधन पर पुरुष के विशेषाधिकार को सुदृढ़ करते हैं. इस मामले में बहस तो हर विश्वविद्यालय के पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होनी चाहिए. 
पर फ़िलहाल बलि का बकरा ए.एम्.यू. के वी.सी. ही बने!