Friday, June 27, 2014

कंडोम बनाम कल्चर


 हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन, एड्स से लड़ने के लिए कंडोम के बजाय भारतीय संस्कृति को प्राथमिकता देने की कह कर सोशल मीडिया के निर्दय चुटकुलों के ताज़े- ताज़े शिकार बन गए हैं. हालांकि उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज के ज़रिये सफ़ाई देने की कोशिश की है कि उनके बयान को तोड़ा- मरोड़ा गया है. वो कंडोम के विरोधी नहीं लेकिन सेक्स संबंधों में ईमानदारी के पक्षधर हैं. पर तब तक सोशल मीडिया पर कल्चर ही कंडोम है’, ‘अपना कल्चर पाहन कर चलोजैसे जुमले उछाले जा चुके थे. उनके इस बयान के बहाने ही सही दो मुद्दों महत्वपूर्ण पर प्रायः प्रतिबंधित मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए- पहली स्वास्थ्य नीतियों में नैतिकता के दखल और दूसरा विज्ञापनों में  कंडोम का चित्रण.फ़िलहाल अगर स्वास्थ्य मंत्री के बयान के सन्दर्भ को परे रख कर बात करें तो संस्कृति के ज़रिये समस्या का समाधान निकालना कोई हास्यास्पद बात नहीं है. कोई भी संस्कृति अपने मूल में अपनी जन्मदाता सभ्यता के लोगों की ज़रूरतों का जवाब भर ही है. जब तक तकनीक किसी समस्या का तोड़ न ढूंढ ले, संस्कृति ही समाधान है. लेकिन तकनीक का विकास होते ही संस्कृति का पलक झपकते ही बदल जाना संभव नहीं है. इसके जीवाश्म आधुनिकता के साथ हमेशा ही लिपटे रहते है. गर्भनिरोधकों के आविष्कार-प्रसार से पहले के समय में, ‘संयमकी संस्कृति निश्चय ही अनचाहे गर्भ, संक्रमण से बचाव और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए वरदान रही होगी. ये किसी ख़ास धर्म या संस्कृति की विशिष्टता हो ऐसा भी नहीं है. ईसाई धर्म का भी ब्रह्मचर्य और एब्स्टिनेंसपर कमोबेश उतना ही ज़ोर रहा है. लगभग सभी पोप गर्भनिरोध, कंडोम और गर्भपात को लेकर अपने अनुदार विचारों से विश्व को चौंकाते रहें है.
इस तरह की नैतिकता का पाठ पढ़ाना धर्मगुरु होने की पात्रता तो हो सकती है लेकिन स्वास्थ्य नीतियों के साथ इसका घाल-मेल बहुत घातक है. नीति नियंताओं और शिक्षकों ने जब भी जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी नैतिक शिक्षा के सहारी छोड़ी है, तब-तब मुंह की खाई है. नब्बे के दशक में अमेरिका में किशोर लड़कियों में बढ़ती गर्भाधान की दर से निपटने के लिए किये गए उपाय इसका उदाहरण है. कुछ कैथोलिक स्कूलों ने यौन-शिक्षाके बजाय एब्स्टिनेंस ओनलीकार्यक्रमों का सहारा लेना ज़्यादा पसंद किया. २०१० के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मिसीसिपी जैसे राज्यों में जहां यौन शिक्षा नहीं दी गयी वहां किशोरियों में अनचाहे गर्भ की दर न्यू हैम्पशायर जैसे उदार राज्यों से अधिक है जहां के स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती है. जागरूकता विहीन युवा और किशोरों के पास ग़ैरइरादतन गर्भ और एड्स से बचने की कोई तैयारी नहीं होती. क़ानून या उपदेश के बूते हम किसी के लिए यौन गतिविधि की उम्र नहीं तय कर सकते. कम से कम नीति नियंताओं को इस मुगालते में नहीं आना चाहिए. हां, सही जानकारी और कंडोम के प्रचार-प्रसार के ज़रिये उन्हें एड्स जैसी तमाम संक्रामक बीमारियों के खतरे से ज़रूर बचाया जा सकता है. अब बात कंडोम के विज्ञापनों की आती है. डॉक्टर हर्षवर्धन की शिकायत कंडोम के विज्ञापनों के ज़रिये हर तरह के संबंधों को जायज़ दिखाने की है. गौरतलब है कि हाल ही में अभिनेता रणवीर सिंह ने ड्यूरेक्स कंडोम का ऐड किया जिसमें वो हर बार अलग लड़की के साथ नज़र आते हैं. ये एक अजीब संयोग है लेकिन फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी दिखने वाली इन दोनों घटनाओं में एक जैसा ही सन्देश निहित है. डॉ. हर्षवर्धन अगर मोनोगैमी को कंडोम का विकल्प मानते हैं तो क्या वो इस बात की अनदेखी नहीं कर रहे कि बेहद इमानदार संबंधों में भी अनचाहे गर्भ और एस.टी.डी. का ख़तरा होता है. इसी तरह डू द रेक्सका विज्ञापन पुरुषों की बिन लगाम के घोड़ेवाली छवि को भुना रहा है. दोनों ही अपने- अपने तरीके से वैवाहिक संबंधों के भीतर कंडोम की ज़रुरत को कम करके आंक रहें है. ये ठीक है कि  नैतिकता किसी भी विज्ञापन को कटघरे में खड़ा करने का बहाना नहीं बन सकता लेकिन जो उत्पाद किसी सामाजिक सारोकार से जुड़ा हो मीडिया में उसके चित्रण की पड़ताल ज़रूरी है. अस्सी-नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले निरोध के विज्ञापनों में पुरुष कभी कैसीनोवानहीं होते थे. वो ज़्यादातर हमारे आस-पास का शादीशुदा आदमी थे. क्या मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग तक जागरूकता पहुंचाने के लिए ये आम आदमीवाली छवि ज़्यादा सहायक नहीं है?
एक और रोचक पहलू महिलाओं का ऐसे विज्ञापनों से नदारद रहना भी है. क्या इसे हमारे समाज में शारीरिक संबंधों के मामले में औरतों के पास निर्णय लेने का ज़्यादा अधिकार न होने का प्रतिबिम्ब माना जायएक पूजा बेदी के कामसूत्रविज्ञापनों को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो आज भी किसी मुख्यधारा की अभिनेत्री का कंडोम के ऐड में दिखाई देना उसके कैरियर के लिए घातक होगा. औरतें दिखीं हैं तो माला डीके ऐड में, वो भी हमेशा शादीशुदा जिनके लिए गर्भनिरोधक गोलियां बच्चों में अंतर रखने का एक तरीका है निडर प्रणय संबंधों का साधन नहीं. डू द रेक्समें लड़कियां तो हैं लेकिन वो निर्णयकर्ता नहीं निष्क्रिय सजावटें हैं जो सिर्फ़ विज्ञापन को ज़्यादा उत्तेजक बनाने के लिये है. लेकिन स्थापित मानकों का इस्तेमाल शायद ऐसे विज्ञापन निर्माताओं की मजबूरी है कभी व्यावसायिक लाभ के लिए तो कभी ज़्यादा से ज़्यादा जनता को बिना प्रतिरोध के जागरूक करने के लिए.

लेकिन स्वास्थ्य मंत्री और डॉक्टर होने के नाते क्या हर्षवर्धन जी की क्या ये ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इस बहस को नैतिकता के बजाय यथार्थ के प्रिज़्म से देखने और दिखाने की कोशिश करें. आज इंटरनेट और टी.वी. की व्यापक पहुँच हर तरह के अधकचरा ज्ञान को घर- घर पहुंचा रही है. आप न यौन जिज्ञासा को रोक सकते हैं और न ही आपसी सहमति से बने किसी भी तरह के विवाह-पूर्व, विवाहेतर या वैवाहिक संबंधों को. लेकिन उन्हें सुरक्षित ज़रूर बना सकते है. एड्स की बढ़ती दरों के बीच कंडोम सबसे प्रक्टिकल उपाय है. वैसे भी ये एक बचकानी अवधारणा है कि लोग हर तरह के यौन सम्बन्ध सिर्फ़ इसलिए बनाने लगेंगे क्यूंकि कंडोम आसानी से उपलब्ध है! स्वास्थ्य विभाग अगर अपना नैतिक-अनैतिक थोपे तो असफ़ल होगा क्यूंकि सबके लिए एक ही रेडीमेड नैतिकता काम नहीं करती. वहीं अगर वो नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष रहकर जागरूकता अभियान में अपनी ताकत झोंके तो ज़रूर सफ़लता मिलेगी क्यूंकि जागरूकता की कमी ही उनकी चिंता का विषय हो सकता है. नैतिकता की कमी की भरपाई करना किसी भी मंत्री या सरकारी मंत्रालय के अधिकारक्षेत्र के बाहर है.


 डॉक्टर हर्षवर्धन का साक्षात्कार 
विस्फोट.कॉम पर यह लेख

Monday, June 9, 2014

जातिवाद और दलित महिलाओं का संघर्ष


बात राजस्थान के भटेरी गाँव की है. गाँव के गूर्जर समुदाय के कुछ युवकों ने एक दलित औरत को ‘सबक सिखाने’ की ठान ली. वो औरत सरकारी संस्थाओं की ‘साथिन’ बनकर गाँव में बाल विवाह रुकवाने की कोशिश कर रही थी. और तो और, उसने नौ साल की बच्ची का विवाह रुकवाने के लिए एक सवर्ण परिवार के ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने का दुस्साहस भी दिखाया था. इस समुदाय के पांच युवकों ने 22 सितम्बर 1992 की शाम ‘साथिन’ भंवरी देवी का बलात्कार किया. भंवरी देवी, मेडिकल जांच,  पुलिस और गाँव-समाज की प्रताड़ना से लेकर हर कदम पर मुसीबतों से जूझने के बावजूद न्याय पाने में असफ़ल रहीं. 1995 में सेशन कोर्ट ने पाँचों अभियुक्तों को बाइज्ज़त बरी कर दिया. उस निर्णय में बाक़ायदा लिखित है कि, ‘ये अविश्वसनीय है कि कोई ‘ऊंची’ जाति का पुरुष किसी दलित स्त्री का बलात्कार करेगा.’
इसी वर्ष २३ मार्च को हरियाणा के भगाणा गाँव में बाल्मीकि समुदाय की चार लड़कियों का गाँव के जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया. न्याय पाने के लिए उनका संघर्ष देश की राजधानी में धरने के रूप में अभी तक जारी है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के बंदायूं जिले के कटरा गाँव में, चौदह व पंद्रह साल की दो नाबालिग चचेरी बहनों के साथ, गाँव के ही कुछ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी. हत्या के बाद बलात्कारियों ने उन लड़कियों का शव को बड़ी बेरहमी से पेड़ पर लटका दिया। इस भयानक सीनाजोरी से अपराधियों के बिल्कुल निरापद होने का अनुमान लगाया जा सकता है. आरोपी युवक यादव जाति से सम्बंधित थे जो कि उस गाँव में एक प्रभावी जाति है. पुलिस ने न सिर्फ़ एफ़. आई. आर. दर्ज करने में आनाकानी की बल्कि लड़कियों के परिवार वालों पर भी रिपोर्ट वापस लेने का दबाव डालती रही. अब मध्य प्रदेश से भी मिलती-जुलती खबरें आ रहीं है. बदायूं की घटना के बाद अखिलेश यादव की संवेदना शून्य प्रतिक्रया से ज़ाहिर है कि भंवरी देवी काण्ड के बाईस वर्ष बाद भी इस तरह के मामलों में पुलिस, प्रशासन और समाज, तीनों ही अपेक्षाकृत कम संवेदनशील है.
‘निर्भया काण्ड’ के बाद आई बहुचर्चित और प्रायः प्रशंसित वर्मा कमेटी रिपोर्ट में जातिवाद उत्प्रेरित बलात्कार का बारंबार उल्लेख था. इसी घटना के बाद दिए गए एक बयान में आर. एस. एस. प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि ‘भारत’ में बलात्कार नहीं होते. ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त दलित महिलाओं पर होने वाली हिंसा शायद उनके लिए बलात्कार की श्रेणी में ही नहीं आते और ऐसी मान्यता रखने वाले वो अकेले नहीं हैं. ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन से पहले गाँव में आने वाली किसी दलित की नवविवाहिता पर गाँव के ज़मींदार का अधिकार स्वाभाविक माना जाता था.
यहाँ उद्देश्य न तो किसी देश-धर्म, संस्कृति या जाति व्यवस्था को घेरने का है और न ही किसी ख़ास जाति के सभी पुरुषों को अमानवीय ठहराने का है. इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ प्रतिरोध और आक्रोश को दिग्भ्रमित करती हैं. लेकिन ये शोचनीय है कि भंवरी देवी का संघर्ष आखिर अंतहीन क्यूँ बन गया या भगाणा की बलात्कार उत्तरजीविताओं का संघर्ष वैसा ही क्यूँ बनता जा रहा है? क्यूं बदायूं की घटना के विरोध में हर शहर के हर गली-चौक में ‘१६ दिसंबर’ के उत्तरार्द्ध जैसी उग्र भीड़ इकट्ठा नहीं हो सकी? इन सबका जवाब पाने के लिए विभिन्न जातियों के अंतर्संबंध के इतिहास और समाजशास्त्र की गहराई में जाने की ज़रुरत है.

जाति व्यवस्था, सामाजिक वर्गीकरण की सबसे पुरानी व्यवस्थाओं में से एक है जिसमें हर एक वर्ग का एक नियत स्थान है. शुद्ध-अशुद्ध और स्वीकार्य-निषिद्ध के नियमों ने इन वर्गों को पारस्परिक निर्भरता के बावजूद एक दूसरे से नितांत अलग अस्तित्व बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जाति व्यवस्था और लिंगभेद की गड्डमगड्ड ने भारतीय समाज की जो परिपाटी तैयार की है उसमें सवर्ण पुरुष सबसे पहली और दलित महिलाएं सबसे निचली पायदान पर आते हैं. इस जटिल व्यवस्था में, विवाह संबंधों में स्वीकार्य संबंधों के बजाय निषिद्ध सम्बन्ध अधिक स्पष्टता से परिभाषित हैं. ख़ास तौर पर, लड़कियों के मामले में हिन्दू समाज में लड़की का सम्बन्ध अपने बराबर या फिर अपने से ऊंची कुल-जाति में करने की परम्परा है. ऐसे में ऊंची जाति की महिला और नीची जाति के पुरुष का सम्बन्ध सर्वथा अनुचित और अवांछनीय है. जो स्त्री जितनी ही ऊंची जाति से सम्बन्ध रखती हो उसकी लैंगिक स्वतंत्रता पर उतनी ही बंदिशें होंगी. दलित वर्ग में अपनी स्त्रियों पर ऐसा नियंत्रण लगाने की प्रथा या आवश्यकता कभी नहीं रही. ऊंची जाति के पुरुष के लिए दलित स्त्रियाँ हमेशा से ज्यादा प्राप्य हैं जबकि इसका उलटा वर्जित है. ऐसे में सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के स्वेच्छा से बने संबंधों तक को रूढ़िवादी समाज का बहुत आक्रामक प्रतिरोध झेलना पड़ता है, जबकि दलित स्त्री पर सवर्ण पुरुषों द्वारा किये गए बलात्कार की भी ‘शॉक वैल्यू’ बेहद कम है. जो दलित धर्मान्तरित हो गए हैं उनकी भी सामाजिक स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं है. भारतीय उपनिवेश में, जाति व्यवस्था उन धर्मों में भी परासरित होती गयी है जिनमें इसका नामो-निशान भी नहीं था. ज़्यादातर समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार का उत्प्रेरण, काम-वासना के बजाय ‘पावर’ से जुड़ा हुआ है. अगर पितृसत्ता ने पुरुषों को ये ताकत दी है तो भारत में जाति व्यवस्था ने वही ताकत ऊंची जाति के पुरुषों के हाथों में संकेंद्रित कर दी है. ये ताकत शारीरिक नहीं, सामाजिक है. किसी ऊंची जाति के पुरुष को अपने समाज की स्त्री की ‘रक्षा’ न कर पाने के लिए जितना शर्मिन्दा किया जाएगा, अपने से नीची जाति की स्त्री का उत्पीड़न करने के लिए उतना नहीं. समाज और न्याय प्रणाली में समुचित और सुनिश्चित दंड और शर्मिन्दगी का न होना ही ऐसे अपराधियों की ताकत है.
आम तौर पर इस घटना के विरोध में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रहीं हैं उनमें या तो मीडिया के पूर्वाग्रह की चर्चा है, या देश और संस्कृति को शर्मिंदा करने की कोशिश, या फिर इन घटनाओं को ‘बलात्कार’ की स्थूल श्रेणी में डाल देने की कवायद, जो कि जातिवाद के सूक्ष्म सन्दर्भों की अनदेखी करती है. आलोचना ये है कि इन घटनाओं को आगामी चुनावों के मद्देनज़र ज़्यादा तूल दिया जा रहा है. ऐसा संभव है कि इन घटनाओं को मिलने वाला मीडिया कवरेज मौसमी हो या उस क्षेत्र की राजनैतिक परिस्थितियों और किसी राजनैतिक दल विशेष के प्रति दुराग्रह से प्रेरित हो. लेकिन मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टिंग इन अपराधों का गुरुत्व कम नहीं कर सकती. अपराध फिर भी अपराध है और उतना ही निंदनीय! इसी तरह देश और संस्कृति पर आक्रमण, भावावेश में की गयी अभिव्यक्ति हो सकती है लेकिन समस्या का समाधान नहीं. ऐसी प्रतिक्रियाएं उल्टा, सम्बंधित वर्ग और समाज में, बदलाव के प्रति और प्रतिरोध ही पैदा करती हैं. जाति आधारित भेदभाव मिटाने के तरीकों के बारे में तमाम महान सुधारकों में भी मतभेद रहा है. जहां बाबा साहब आंबेडकर जाति व्यवस्था के ही समूल नाश की बात करते थे वहीं महात्मा गांधी सिर्फ़ छुआ-छूत जैसी कुरीतियों का ही बहिष्कार करने के पक्ष में थे. तरीका चाहे जो भी अपनाया गया हो दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार की गति, नौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आ रही है.  
कोई आश्चर्य नहीं कि विपक्षी दलों के नेता भी ऐसे अवसरों को भुनाने का प्रयास करते दिख रहें है. मगर आंकड़ों की माने तो दलित उत्थान के नाम पर वोट लेने वालों के शासन में भी दलित औरतों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं है. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि दलित महिलाओं को अपने आप में कभी एक वर्ग या ‘वोट-बैंक’ के रूप में नहीं देखा गया. महिलाओं या फिर दलितों के उत्थान की योजनाओं में ही उनका भला समझ कर हर एक सरकार ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. ऐसा अनुमान था कि दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए किये गए प्रयासों का फल अंततः दलित महिलाओं तक भी पहुँच ही जाएगा. लेकिन अब तक ये एक मिथ्या अवधारणा ही साबित हुई है.
तमाम उदाहरणों से ज़ाहिर है कि जातिगत बलात्कार का प्रतिफल चाहे अन्य यौन हिंसाओं जैसा ही दिखे, मगर इसके पीछे का उद्देश्य, इरादा और उत्प्रेरण बहुत अलग है इसलिए इन पर अलग से चर्चा किये जाने की ज़रुरत है. ऐसी घटनाओं को धड़ल्ले से अंजाम दिया गया, क्यूंकि ऐसा आसानी से किया जा सकता था और करके आसानी से बचा भी जा सकता था. इसलिए बलात्कार, अपराधियों के लिए दलित महिलाओं को उनकी हद याद दिलाने का सबसे सुगम रास्ता बन गया. ऐसी स्थिति में दलित लड़कियों के साथ हुई इन घटनाओं के लिए क्या कुछ विशेष प्रावधान होना चाहिए? इसमें एक कानूनी पेचीदगी यह है कि, कानून कभी भी उद्देश्य या अपराध के पीछे इरादों के आधार पर सज़ा नहीं दे सकता. लेकिन अगर दो अलग-अलग बीमारियों के लक्षण सामान भी हों तो दोनों के इलाज के लिए एक ही दवा काम नहीं कर सकती. इससे पहले भी दलित उत्पीड़न रोकने के लिए भारत सरकार ने 1989 में ‘शेड्यूल कास्ट एंड ट्राइब एक्ट’ पास किया था. जिसके तहत आरोपी को बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता था साथ ही जातिवादी हिंसा को गैर ज़मानती अपराध बना दिया गया था. हालांकि जातिवाद की गहरी जड़ों के कारण ऐसे कानूनों का क्रियान्वयन अपने आप में एक समस्या है जिसके चलते ऐसे कानून अक्सर दंतहीन साबित होते हैं. लेकिन समाज विशेष की संरचना के हिसाब से यदि न्याय व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो जाय तो उसे तटस्थ बनाने को कोई न कोई तरीका निकालना तो आवश्यक हो जाता है.

ये एक दुखद सत्य है कि किसी भी समाज में किसी व्यक्ति के न्याय पाने की संभावना उसकी सामाजिक स्थिति के समानुपाती होती है. जिनका सामाजिक ओहदा- धर्म, जाति, संख्या, आर्थिक या लैंगिक किसी भी आधार पर कमतर है उनको न्याय मिल पाने की संभावना बहुत क्षीण होती है. ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियाँ अपनी जाति और लिंग के आधार पर दोहरा दमन झेलती हैं. दलित महिलाओं के बलात्कार पर प्रशासन, कानून और मीडिया, तीनों ही की चुप्पी का बहुत लंबा इतिहास रहा है. क़ानून व्यवस्था में कोई परिवर्तन हो न हो, कम से कम बड़े पैमाने पर विमर्श और प्रतिरोध के ज़रिये नागरिकों और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को ऐसे मुद्दों पर संवेदनशील बनाने की पहल तो होनी ही चाहिए. कुल मिलाकर दलित महिलाओं के संघर्ष को एक ऐसा अंधा कुआँ बनने से बचाना होगा जिसमें न तो रोशनी हो और न ही रास्ता!

विस्फ़ोट पर इस लेख के अंश.

एक मित्र शुभम गुप्ता की बदौलत अब ये लेख ऑडियो फॉर्मेट में यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है-
https://www.youtube.com/watch?v=wmifvOfrvy0

Thursday, June 5, 2014

संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण

अमेरिका के दक्षिणी तट पर मिसीसिपी नदी की लाई जलोढ़ मिट्टी पर बना लुइसियाना नाम का एक स्टेट है. ये स्टेट अपने खूबसूरत तटवर्ती इलाकों और एक अनोखे पक्षी ‘पेलिकन’ के लिए मशहूर है. लुइसियाना के झंडे और सील पर विराजमान इस पक्षी की खासियत, इसकी अनूठी, लम्बी चोंच है जिसके नीचे एक थैलीनुमा संरचना होती है. पेलिकल नदी के ऊपर आराम से उड़ते-उड़ते अचानक पानी में गोता लगाता है और अपने प्रिय आहार मछली को इसी थैली में कैद कर लेता है. 1950 के दशक में अचानक इस पक्षी की संख्या घटने लग गयी. 1960 आते-आते सिर्फ़ दो जोड़े ही बचे. तमाम शोध के बाद पता लगा कि इसकी वजह एक कीटनाशक ‘डी. डी. टी.’ है. जो फैक्ट्रियों के अपशिष्ट के साथ नदी में आकर मिलता है. वहां से मछलियों के पेट में जाता है और फिर वहां से उसे खाने वाले पेलिकन के शरीर में. प्रकृति का एक अजीब तंत्र ये है कि लाभदायक चीज़ों को तो जीवों का शरीर ज़रुरत भर ही अवशोषित कर पाता है लेकिन डी. डी. टी. जैसी हानिकारक चीज़ें शरीर की वसा में इकट्ठी होती चली जाती हैं. डार्विन के अनुसार किसी जीव की दुरुस्ती उसकी प्रजनन दर से मापी जा सकती है. 
बस, पेलिकन भी यहीं पर मात खा रहे थे. उनके शरीर में जमकर बैठा डी. डी. टी. उनके अण्डों के कवच को कमज़ोर करे दे रहा था. अंडे सेने के लिए जैसे ही मादा पेलिकन उन पर बैठती, वो अंडे उसके भार से टूट जाते. वजह पता चलते ही लुइसियाना सरकार ने डी. डी. टी. पर प्रतिबन्ध लगा दिया. देखते ही देखते कुछ ही सालों में पेलिकन की संख्या चार से चार सौ हो गयी. लुइसियाना में पेलिकनों की वापसी, मानव द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र की क्षतिपूर्ति का एक दुर्लभ उदाहरण है. ऐसा इसीलिये संभव हो पाया क्यूंकि समय रहते ही, दो बिलकुल जुदा दिखने वाली चीज़ों के बीच सम्बन्ध पहचान लिया गया. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति की हर एक जैविक-अजैविक इकाई, मिट्टी से लेकर मनुष्य तक, सब एक दूसरे से जुड़े हैं! पर्यावरण संरक्षण के लिए बस इतनी ही समझदारी विकसित करने की ज़रुरत है.
आम तौर पर पर्यावरण से जुड़े खतरों में ग्लोबल वार्मिंग का जिक्र ज़रूर आता है. लेकिन ये भी सिर्फ़ ग्लेशियरों के पिघलने तक ही सीमित रहता है. बर्फ़ पिघलना तो तापमान बढ़ने का बहुत प्रत्याशित परिणाम है लेकिन ज़्यादातर परिणाम बहुत अप्रकट और दूरगामी होते हैं. उदाहरण के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में पाए जाने वाले बहुत से हानिकारक परजीवी हैं जो कि ऊंचे तापमान पर आसानी से जीवित रह सकते हैं. पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने से इनकी संख्या बढ़ती जा रही है, साथ ही मलेरिया जैसे रोग भी. कछुओं की कुछ प्रजातियों में भ्रूण का लिंग निर्धारण तापमान पर निर्भर करता है. भ्रूण के विकास के दौरान यदि तापमान, एक सीमा से ज़्यादा हो तो सारे बच्चे नर पैदा होते हैं. लेकिन बिना पर्याप्त मादा कछुओं के प्रजाति आगे कैसे बढ़ सकती है? पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न जीवों के बीच का सम्बन्ध इतना संतुलित और इतना सूक्ष्म है कि हमें ये दिखाई नहीं देता, जब तक कि हमारी खुद की गतिविधियाँ इस संतुलन को गड़बड़ा न दें. फर्ज़ कीजिये कि शिकारी किसी जंगल में शेरों का अंधाधुंध शिकार करते रहें और शेरों की संख्या में भारी कमी आ जाय तो, उस जंगल में हिरन जैसे शाकाहारी जीवों की संख्या बढ़ जायेगी जो कि अब तक शेर का आहार थे. निरंकुश हिरन अब जंगल की घास और पेड़-पौधों को चर कर धीरे-धीरे जंगल का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे. मामूली से मामूली दिखने वाली  प्रजाति की अपनी एक भूमिका है जो कोई और नहीं कर सकता. जब ‘न्यूरोस्पोरा’ नाम के एक परजीवी फंगस ने दुनिया भर की चावल की फ़सलों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया था तब केरल के जंगलों में मिली चावल की एक किस्म में इस फंगस का प्रतिरोधी जीन मिला था. इस साधारण से जंगली चावल ने, मनुष्य की एक भयानक अकाल से रक्षा की थी. ये अच्छा ही था कि केरल के जंगल तब तक हमारी विनाशलीला से बचे हुए थे. लेकिन तमाम जानी या अनचीन्ही प्रजातियों पर ये ख़तरा लगातार बना हुआ है. 
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मैल्थास का कहना था कि प्रकृति में खाद्य उत्पादन इतनी तेजी से नहीं बढ़ता जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती है. उनके अनुसार संसाधनों की ये कमी ही जनसंख्या पर अंकुश लगाएगी. लेकिन मैल्थास ने मनुष्य की रचनात्मकता को कम करके आंक लिया था. जैसे-जैसे संसाधनों की कमी पड़ती गयी हमने नित नए उपाय-आविष्कार करने शुरू कर दिए. मानव सभ्यता की शुरुआत में जब तक मनुष्य शिकार और कंद-मूल इकट्ठा करके जीवित रहते थे तब तक वो प्रकृति से सिर्फ़ उतना ही लेते थे जितना कि उनके लिए ज़रूरी था. संचय की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी. उनकी जनसंख्या भी प्रकृति में उपलब्धता के आधार पर ही नियंत्रण में रहती थी. कहते हैं कि मनमाफ़िक औजार विकसित कर लेने की क्षमता ने ही हमें जानवरों से अलग पहचान दी. बड़े-बड़े पत्थरों को घिस-घिस कर इंसान ने अपना पहला हथियार बनाया. जिससे कि वो कभी जानवरों का शिकार करता, तो कभी पेड़ों की जड़ें खोदता. फ़िर उसने जंगल साफ़ करके खेती करने की ठानी और तभी कुल्हाड़ी-कुदालें बनाई और पूजी जाने लग गयीं. फिर  धातु की खोज और बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की शुरुआत हुई. औद्योगिक क्षेत्रों में बसते ही, परिवार उत्पादक के बजाय उपभोक्ता हो गए. जैसे ही हमने खाद्यान्न उगाने के बजाय, बाज़ार से खरीदना शुरू किया, वैसे ही प्रकृति और संस्कृति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी. अब के वैज्ञानिक युग में तकनीकी उन्नति की दर सालों में नहीं हफ़्तों में नापी जाती है. इस तरह हम शिकारी से कृषक हुए, कृषक से उद्योगपति और अब जब खेती योग्य ज़मीन कम पड़ रही है तो हम रासायनिक खाद से लेकर फसलों की जीन संरचना तक में घुसपैठ कर चुके हैं. अब हम प्रकृति को जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों का अंगूठा दिखा रहें है, कि देखो हमें तुम्हारी दया की ज़रुरत नहीं! हर एक आविष्कार ने हमें प्रकृति में मनचाहा फ़ेरबदल कर लेने की ताकत दी. सभ्यता की तरफ़ बढ़ता हर क़दम, हमें प्रकृति से दूर करता चला गया और ये दूरी हज़ारों बरसों में पैदा हुई है. लेकिन आज भी तमाम जन-जातियां आदिकाल जैसी स्थितियों में रह रहीं है. उनको देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है. वो प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाना जानते हैं. वो अगर पेड़ काटते हैं तो सिर्फ़ सूखे हुए, फल खाते हैं तो पेड़ों से गिरे हुए, जानवरों का शिकार करते हैं तो मादा और बच्चों को कतई नहीं और अगर जानवर पालते हैं तो उनकी दिनचर्या के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं. उनके साथ चारागाह से चारागाह भटकते हैं, उन्हें डेयरी फार्मों में बांधकर अपने हिसाब से जीने पर विवश नहीं करते. उनकी भाषा, लोकोक्तियों और लोक गीतों में साफ़ ज़ाहिर है कि उनके लिए प्रकृति और संस्कृति का भेद बहुत गहरा नहीं है. इसलिए संरक्षित क्षेत्रों और वन्य अभ्यारण्यों से भी उन्हें निकाला नहीं जाता. जंगल उनके जीविकोपार्जन नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा है. वो ये कभी नहीं कहते कि ‘ये जंगल हमारा है’ बल्कि कहते हैं- ‘हम इस जंगल के हैं, ये जंगल ही हम सबको पालता है.’ इन जनजातियों से सीख लेकर यदि हम भी प्रकृति को अपना संसाधन समझने के बजाय खुद को प्रकृति का अटूट हिस्सा समझना शुरू कर दें तो हम शायद ही इसका विनाश कर पायेंगे. क्यूंकि विकास के नाम पर प्रकृति का क्षरण करने वाला हर क़दम विनाश की ऐसी श्रृंखला अभिक्रिया की शुरुआत कर देता है जिसका आदि और अंत, दोनों हम ही हैं. रॉकेट, जेट प्लेन और रेफ्रिजरेशन जैसी तकनीकों का अगर लाभ उठाना है तो उनसे निकली जहरीली गैसों के धुंए से ओजोन परत में हुए छेद से आती हानिकारक पराबैंगनी किरणों का दंश भी हमें ही भुगतना है.
अंत में एक अमेरिकी पर्यावरणविद, एडवर्ड एबी के शब्दों में-

“Growth for the sake of growth is the ideology of cancer cell.”

(“अंधाधुंध विकास, कैंसरग्रस्त कोशिका का लक्षण है.”)