Friday, November 8, 2013

एक ऋतुमती परुष के प्रसव की कहानी

ये कहानी अरुणाचलम् मुरुगनाथम् के जीतने से ज्यादा हमारे हारने की है. मुरुगनाथम् तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिले के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं. उनकी जिन्दगी अपने गाँव के बाकी लोगों जैसी ही थी, नाम-मात्र की पढ़ाई, फैक्ट्री में नौकरी, कच्ची उम्र में घर वालों की पक्की की हुई शादी.
पत्नी को एक दिन हाथ पीछे बांधे, कुछ छुपा कर ले जाते देखकर पूछा, ‘क्या छुपा रही हो?’
तुमसे मतलब?’ पत्नी से रूखा सा उत्तर मिला.
लेकिन मुरुगनाथम् ने पत्नी के हाथ में मैला कुचैला कपड़ा देख ही लिया जिसे हम अपने घरों में झाड़ने-पोंछने के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे. वो वजह ताड़ गए और पत्नी से पूछा कि वो टी.वी. पर दिखाए जाने वाले सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल क्यूँ नहीं करतीपत्नी के कहा कि ऐसा किया तो घर के लिये दूध खरीदना बंद करना पड़ेगा. नयी-नयी पत्नी को इम्प्रेस करने के लिए सेनेटरी नैपकिन खरीदने के इरादे से अरुणाचलम् मुरुगनाथम् एक दूकान में घुसे. दुकानदार नैपकिन के पैकेट जब भी किसी को देता तो इधर-उधर देखकर जल्दी-जल्दी उन्हें अखबार में लपेटकर काली पन्नियों में छुपा देता, मानों कोई प्रतिबंधित ड्रग्स बेच रहा हो. उन्होंने नैपकिन का एक पैकेट हाथ में उठाया, वजन कोई दस ग्राम रहा होगा और दाम दो सौ से भी ऊपर. हैरान-परेशान मुरुगनाथम् ने एक नैपकिन खुद ही बनाने का फैसला किया. रूई खरीदी, उसके ऊपर कपड़ा लगा कर आढ़ी-टेढ़ी सिलाई मारी और बीवी को पकड़ा दिया. एक तो असंतुष्ट बीवी का खराब फीडबैक और उस पर इस बात की शर्म कि अपने घर-गाँव की औरतों के लिए पैड बनाने के लिए एक विदेशी कंपनी की जरूरत है. बस तब से कम दाम के नैपकिन बनाने की खब्त सवार हो गयी. नयी-नयी तरकीबों से पैड बनाते और पत्नी को पकड़ा देते. पत्नी महीने में एक ही बार फीडबैक दे सकती थी, इसलिए बहनें उनका अगला निशाना बनी. लेकिन कोई इस बारे में बात तक करने को राज़ी नहीं था. हारकर उन्होंने शहर के मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क साधने की कोशिश की. उनमें भी वही झिझक. शर्म-धरम की संस्कृति से ऐसे बेशरम प्रयोगों के लिए वॉलंटीयर कहाँ से आते? ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की हार है जो सामाजिक रूढ़ियों के आगे अक्सर दम तोड़ देती है.
वैसे भी जो बरसों से पीरियड्स के नाम पर सकुचा जाना ही सीखती आयीं हैं, जिनकी दादी-नानी-माँ ने मिलकर उन्हें मासिक धर्म में सिर्फ खुद को अपवित्र समझने का पाठ पढ़ाया है, उनमें ऐसी बेझिझक निर्भीकता कहाँ से आयेगी कि वो किसी पुरुष के सामने इस बारे में बात कर सकें. कुछ लड़कियों के फीडबैक के सहारे प्रयोग थोड़ा आगे बढ़ा लेकिन मुरुगनाथम् समझ गए थे कि लड़कियों के भरोसे नहीं रहा जा सकता. बस, फिर जैसे नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रमा पर जाने वाले पहले पुरुष बने थे, तेनजिंग नोर्गे एवरेस्ट पे चढ़ाई करने वाले पहले पुरुष बने थे वैसे ही मुरुगनाथम् सेनेटरी पैड पहनने वाले पहले पुरुष बन गए. जानवरों के खून से भरा एक लचीला ब्लैडर उनके हाथ में होता जो एक नली के सहारे सेनेटरी पैड से जुड़ा होता. मुरुगनाथम् चलते-फिरते, साइकिल चलाते थोड़ा-थोड़ा खून पम्प करते जाते. उनके अनुसार ये उनके सबसे मुश्किल दिन थे. औरतों की समस्याएँ जानने के लिए उन्होंने खुद औरतों की दिनचर्या और दिमाग में उतरने फ़ैसला किया. यहाँ वो हमारी पौरुष की परिभाषा को हराते हैं और मासिक धर्म से जुड़े अशुद्धि और कमज़ोरी जैसे पूर्वाग्रहों को भी. और ऐसा करके अच्छा ही करते हैं.
लेकिन अब तक उनकी पत्नी शांती का धैर्य जवाब दे चुका था. उन्हें शक होने लगा कि मुरुगनाथम् लड़कियों से बात करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. वो उन्हें छोड़कर चली गयीं. कुछ महीनों में तलाक का नोटिस भी आ गया. लेकिन वो सपना ही क्या जो आपको चैन से सोने दे. जुनूनी मुरुगनाथम् ने लड़कियों से उनके इस्तेमाल किये हुए पैड माँगने शुरू कर दिए. वो उनका कभी खुद परीक्षण करते कभी किसी टेस्टिंग लैब में भेजते. उनकी माँ ने पहले उन पर से भूत-प्रेत उतरवाने के जतन किये और आखिरकार अपनी क़िस्मत ठोंक कर घर छोड़ दिया. गाँव वालों को लगता कि मुरुगनाथम् को कोई गुप्त रोग हो गया है. दोस्त उन्हें देखकर रास्ता बदलने लगे. आखिरकार उन्होंने पता लगा ही लिया कि सेनेटरी पैड बनते तो लकड़ी की लुगदी से ही हैं लेकिन उन्हें बनाने की भारी- भरकम मशीन बहुत महंगी है. मुरुगनाथम् उस मशीन एक छोटी और सस्ती नक़ल बनाने की कोशिश करने लगे.
आज जब मुरुगनाथम् आई.आई.टी और आई.आई.एम. में लेक्चर देते हैं तो कहते हैं, “मैं आपलोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं था, इसलिए तमाम असफलताओं के बाद भी रुका नहीं. पढ़ा- लिखा होता तो कब का रुक जाता.उनका ये कथन सबसे करारी चोट करता है. पढ़- लिख कर हम सबने एक जैसी डिग्रियां पायीं और अपनी मौलिकता खो दी. स्थाई नौकरी पाने की जद्दोजहद, कुछ नया कर दिखाने के जूनून पर हावी हो गयी. ये हमारे अभिजात्य की हार है जिसकी ठसक में हमने मुरुगनाथम् जैसों को हमेशा हेय समझा है.  

अंततः वो मशीन बन गयी. कम लागत में बढ़िया गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने का तरीका मिल गया. उस देश में जहां सेनेटरी नैपकिन की पहुँच शहरी इलाकों में सात प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में सिर्फ दो प्रतिशत है, वहां ये तकनीक मुरुगनाथम् के लिए सोने की चिड़िया साबित हो सकती थी. लेकिन उन्होंने न सिर्फ इसे पेटेंट कराने से मना कर दिया बल्कि ये मशीनें ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त में इस्तेमाल करने को दे दी. उनका लक्ष्य इसके ज़रिये ग्रामीण महिलाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा रोज़गार और स्वास्थ्यकर ज़िन्दगी मुहैया कराना है. यहाँ वो हमारे अर्थशास्त्र को हराते हैं जो सिर्फ मांग-आपूर्ति और अधिकतम लाभ का रट्टा लगाता है. बस यही एक हार हमें नहीं कचोटती.
आज सैकड़ों गाँव और कई देशों में मुरुगनाथम् की तकनीक और उनके नाम की धाक पहुँच चुकी है. उनके जीवन पर मेंसट्रूअल मैननामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है. आई.आई.टी से सर्वश्रेष्ठ आविष्कारसमेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं. लेकिन मुरुगनाथम् को अभी भी चैन नहीं मिला है. वे वर्ष २०३० तक इस तकनीक को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचाना चाहते है. तभी उनकी रजोनिवृतिहो पायेगी. इसे उन्होंने भारत की सेनेटरी पैड क्रान्तिका नाम दिया है. भारत की कुछ जनजातियों में तरुण कन्या के पहले मासिक-स्राव पर पर्व मनाया जाता है. क्योंकि अब वो प्रजनन करने लायक हो गयी है और वंशवृद्धि कर सकती है. इसी तरह मुरुगनाथम् के मासिक धर्म के फलदायी होने का एक उत्सव हम सबको मनाना चाहिए. इसी बहाने कम से कम एक प्रतिबंधित विषय पर बात तो हो सकेगी.

और चूंकि हम सबको सुखान्त पसंद है, इसलिए बता दूं कि अरुणाचलम् मुरुगनाथम् की पत्नी और माँ उनके पास वापस आ चुकी हैं! 


6 comments:

  1. ... और ये सुखान्त ना भी होता तो चलता... असल सुख इस पूरी कहानी के जन्म और इसके जारी रहने में मिला.
    बहुत अच्छे से प्रस्तुत भी किया हैं श्वेता.

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    1. शुक्रिया नील! आपकी प्रतिकिया उससे भी अच्छी लगी! :)

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