Sunday, June 16, 2013

पुरुष होने के लिए.....


जेंडर स्टडीज़ की क्लास का पहला दिन था. जैसा कि होता आया है लड़के गिने- चुने ही थे. सबसे पूछा गया कि आपने ये कोर्स क्यों लिया? लड़कियां बढ़- चढ़ कर जवाब दे रही थीं. किसी की रूचि अकादमिक थी तो कोई अपनी व्यक्तिगत समस्याएं गिना रही था. लड़कों की बारी आई तो ज्यादातर का यही जवाब था- ‘मैं जानना चाहता हूँ कि हमारे देश में लड़कियों की स्थिति इतनी बुरी क्यूं है?’ ये भावना क़ाबिल-ए-तारीफ़ है लेकिन एक सवाल भी उठाती है- क्या जेंडर शब्द सिर्फ लड़कियों के लिए बना है? क्या लड़के कभी ये महसूस करते भी हैं कि जेंडर उनकी जिन्दगी के हर क्षेत्र में घुसपैठिया है? हर देश- राज्य, हर यूनिवर्सिटी में जेंडर से सम्बंधित विषयों में लड़कों की संख्या इनी- गिनी ही है. कुछ हद तक ये समझा जा सकता है कि अमेरिकी विश्विद्यालयों के अमेरिकन- अफ्रीकन अध्ययन विभागों में अश्वेत लोगों की संख्या ज्यादा क्यूँ है या फिर अपने देश में ज़ामिया यूनिवर्सिटी का जो नार्थ- ईस्ट रिसर्च सेंटर है जहां ज्यादातर प्रोफ़ेसर- शोधकर्ता देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही क्यूं हैं. कभी-कभी किसी क्षेत्र, नस्ल या मुद्दे से आपकी क़रीबी आपकी अकादमिक रूचि भी बन जाती है. लेकिन जेंडर की घुसपैठ तो सिर्फ लड़कियों की जिन्दगी तक ही सीमित नहीं फिर जेंडर स्टडीज़ होम साइंस की तरह ही लड़कियों का विषय कैसे बन गया? क्या लैंगिक असमानता की वजह से लड़के कोई भेद- भाव महसूस करते हैं? लेकिन उससे भी पहले एक सवाल- क्या लैंगिक असमानता लड़कों पर भी कोई प्रभाव डालती है? 
हर उस औरत के लिए जो घर के काम- काज करने पर मजबूर है, एक आदमी है जिस पर घर भर के लिए कमाने और स्थाई नौकरी पाने का दबाव है. हर ‘अबला’ जो अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकती उसकी रक्षा के लिए एक लड़के को ‘मर्द’ बनना है. हमारी फ़िल्में, शेविंग क्रीम और चड्ढी- बनियान के ऐड सिर्फ लड़कियों की ख़ूबसूरती ही नहीं, मर्द की ‘मर्दानगी’ के भी मानक गढ़ते रहें हैं. हिरोइन किसी भी कोने-गढ़े में सौ- पचास गुंडों से घिर कर मदद के लिए पुकारे, हीरो को आना ही है और सारे गुंडों को अकेले हराना ही है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में एक सीन है, गोलाबारी हो चुकी है और खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में एक मर्द कहता है- ‘लेडीज़ लोग अन्दर जाइए, चलिए.’ ये एक फ़िल्म की नहीं पूरे समाज की कहानी है. पुरुष को चाहे-अनचाहे माँ, बहनों का रक्षक, घर का शासक- अनुशासक बनना ही है. प्यार में पहल उन्हें ही करनी है. लड़की के हँसी- इशारों को समझने में देर नहीं करनी है. डेट पर गए तो लडकी के लिए दरवाज़ा खोलना है,  कुर्सी खींचनी है और बिल न देने का तो कोई सवाल ही नहीं है.  लिंगभेद से उपजे बंटवारे की सबसे ऊंची पायदानों पर ज्यादातर पुरुष हैं, लेकिन सबसे निचली पायदान पर भी वो ही हैं. डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक का नाम लेते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले पुरुष की छवि कौंधती है लेकिन चोर, लुटेरे और सटोरिये जैसे शब्द भी पुरुषों के लिए ही बने लगते हैं. हर कोई मर्द के बजाय महिलाओं पर ज्यादा जल्दी भरोसा कर लेता है और उनकी मदद के लिए झट से तैयार हो जाता है. सबसे ख़तरनाक कामों के लिए भी हम पुरुषों को ही आगे करते हैं. रात- बेरात बिजली के टूटे तारों की मरम्मत उन्हें ही करनी है, युद्ध पर भी उन्हें ही जाना है. आकड़ों की मानें तो ‘ऑन ड्यूटी डेथ’ में पुरुषों की संख्या महिलाओं से कहीं अधिक है. 
हरेक सभ्यता ने अपने विकास के दौरान स्त्री और पुरुष दोनों का इस्तेमाल किया है. अब सवाल ये है कि सिर्फ लड़कियां ही अपने जीवन में इस शोषण की मौजूदगी क्यूँ महसूस करतीं हैं, लड़कों को ये दबाव क्यों नहीं पता चलता? इसकी वजह ये है कि मर्दानगी से जुड़ी हर एक चीज़ का स्थान समाज में ‘नारीत्व’ से जुड़ी हर एक चीज़ से ऊंचा है. घर में ‘ब्रेडविनर’ का दर्जा ‘हाऊसवाइफ’ से अव्वल है. आक्रामक होना बहादुरी है और रोना कमज़ोरी है. युद्ध में खून बहाना बहादुरी है और मासिक चक्र में खून बहना अशुद्धी और कमज़ोरी की निशानी है. लड़की का कमाना, मर्दाने कपड़े पहनना और बाहर के काम करना बहादुरी है लेकिन लड़के के लिए लड़कियों वाले काम करना अपना मज़ाक बनवाना है. कभी सोच कर देखिये कि हिजड़े हमेशा औरतों जैसे ही कपड़े क्यूं पहनते हैं? दरअसल इस विभाजन में लड़का- लड़की विपरीत होकर एक दूसरे के आमने सामने नहीं ऊपर-नीचे का दर्जा पा चुके है. एक फेमिनिस्ट लेखक ने कहीं कहा था कि- ‘बेटी को तो कोई भी बेटे की तरह पाल सकता है लेकिन अपने बेटे को बेटी की तरह पालने के लिए हिम्मत चाहिए.’ मर्दानगी और इससे जुड़े गुण समाज के लिए मानक (स्टैण्डर्ड) हैं बाकी सब कमतर है. इसलिए बेटे को बेटी जैसा सम्वेदनशील नहीं बनाया जा सकता. हर क्षेत्र के प्रशंसित और सफल लोगों में, घर में ज्यादा खाना पाने वालों में, बहन के मुकाबले पढ़ाई के लिए ज्यादा बजट पाने वालों में, पुरुष जहाँ देखते हैं वहां वो ही वो हैं. इसलिए ये असमानता उन्हें नहीं कोंचती. ऐसा लगता है कि जेंडर ने पुरुषों का फ़ायदा ही फ़ायदा किया है और लिंगभेद मिट जाने पर उनका बड़ा नुकसान हो जाएगा. ये सच है कि रेप, दहेज और घरेलू हिंसा के मामलों की ज्यादातर (हमेशा नहीं) शिकार औरतें ही है. लेकिन कमाऊ पूत होने का दबाव भी ‘सीधी-सादी घरेलू लड़की’ की कसौटी जितना ही मुश्किल है. अब तक नारीवादी आन्दोलनों को ‘मर्दानगी’ के लिए ख़तरा ही समझा गया है. लेकिन लिंग-भेद हटाना सिर्फ लड़कियों के नहीं पूरे समाज के हित में है और इसके साथ पुरुषों को जोड़ने की ज़रूरत है. अगर ये सोच विकसित करने में सफल रहे तो लैंगिक समानता की राह कहीं ज्यादा आसान होगी. 


(ये लेख, जनसत्ता 19 जून 2013  के सम्पादकीय में प्रकाशित है.

लिंक- http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47260-2013-06-19-04-42-55)

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