तारीख कुछ ठीक- ठीक याद नहीं, पर माहौल खूब याद है. रोज़ की तरह
उस दिन भी मैं अपने नियत स्टेशन से नियत समय पर मेट्रो में चढ़ी. पर कुछ बदला-
बदला लग रहा था. लड़के मुझे सीट ऑफर नहीं कर रहे थे (मैं इसकी उम्मीद भी नहीं करती, रोज़ की भागदौड़ में ‘शिवलरस' हो पाना न तो संभव है और न ही जरूरी.) कोई
नाराज़ दिख रहा था तो कोई मूंछों- मूछों में मुस्कुरा रहा
था. सब थोड़े तने- तने बैठे थे. कुछ खुसुर- फुसुर भी कानों में पड़ रही थी.
गंतव्य तक पहुँचते- पहुँचते बात
समझ आ गयी थी कि आज से गति की दिशा का पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित हो चुका
है. बिना डिमांड के लेडीज़ कम्पार्टमेंट शुरू करने के लिए दिल्ली मेट्रो ने अपनी
पीठ ठोंक ली थी.
लेकिन इन सब सिद्धांतवादी-
आदर्शवादी बातों के बावजूद मेरी भी आदत बदल गयी है. अब तो क़दम अपने- आप ही
लेडीज़ कम्पार्टमेंट की तरफ़ बढ़ जाते हैं. जल्दी में कहीं और से चढ़ भी जाऊं तो
भी मेट्रो के विशाल जन-समुद्र में तैरते- फ़िसलते, एक्सक्यूज- मी बोलते
हुए लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँच ही जाती हूँ. वहां पहुँच कर चैन की सांस लेती
हूँ भले ही बैठने की जगह न मिले. जनरल कम्पार्टमेंट पर अपना हक़ ही न रह गया हो
जैसे. ये सोच कर राहत मिलती है कि यहाँ तो अपना ‘आंटी-बेटी-सहेली
गणराज्य’ है जहाँ किसी भी पुरुष (वांछनीय/ अवांछनीय) को घुसना मना है. आ भी गए
तो पेनाल्टी देनी पड़ेगी. वो सिर्फ बगल वाले कम्पार्टमेंट से ताक- झांक कर संतुष्ट
हो सकते है. मैंने लड़कों को न कभी अपना दुश्मन न समझा है न समझूँगी. लेडीज़
कम्पार्टमेंट निर्धारित होने से पहले भी मेट्रो में ख़ुद को काफ़ी सुरक्षित महसूस
करती थी. ऐसी कोई छेड़छाड़ की घटना भी मेरे साथ नहीं हुई. फिर ये लेडीज़
कम्पार्टमेंट का सुकून कैसा?
आम तौर पर ये बहस महिला
सशक्तिकरण तक ही सीमित रह जाती है. अलग- थलग कम्पार्टमेंट दे देना महिलाओं के
कमजोर होने की पुष्टि करता है या नहीं, फिलहाल इस
बहस में नहीं पड़ना चाहती. इस मुद्दे का कहीं गहरा और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किये
जाने की जरूरत है.
हम सब, लड़के- लड़कियां, सार्वजनिक स्थानों पर
पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जो समाज में हमारे ‘जेंडर’ के अनुकूल माना जाता है. एक-दूसरे की उपस्थिति में लड़कियों की ‘फेमिनिनिटी’ और लड़कों की ‘मैस्कुलैनिटी’ अपने चरम पर होती है.
ये ऑटोमैटिक है. मैं लड़कों के सामने सीटियाँ नहीं बजाती, वो मेरे सामने गालियाँ नहीं देते. हम दोनों अपने-अपने नारीत्व और
मर्दानगी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं. हमें अलग-थलग करके हमारे समलिंगियों
के बीच रख दीजिये, हम तुरंत सारी अदाकारी छोड़कर
अपनी औकात पर वापस आ जाएंगे. हमें ऐसा ही सिखाया-पढ़ाया और प्रोग्राम किया जाता है.
ऐसे में हम दोनों के बीच उपलब्ध
स्पेस का विभाजन एक ज़रूरत बन जाती है. पब्लिक स्पेस का ज्यादातर हिस्सा हमेशा से
ही पुरुषों का रहा है. महिलाओं का इस स्पेस में दखल कछ क्षेत्र और समय तक ही सीमित
है. आपको शराब और पान की दुकानों पर, ढाबों पर लड़कियां कम
दिखेंगीं, धुंधलके के बाद भी लड़कियों की
संख्या कम होने लगती है. औरतें इस व्यवस्था के साथ मोल-तोल कर के रनिवास, जनानखाने आदि से लेकर ‘लेडीज़-संगीत’ तक अपनी ‘टेरिटरी’ निर्धारित करती आईं
हैं. जहाँ पुरुष- प्रवेश वर्जित न सही, सीमित ज़रूर रहा है.
मेट्रो सिटी में रहने वाली औरतों की परिस्थितियाँ अलग है. उन्हें अपनी पढ़ाई या
नौकरी के लिए रोज़-ब-रोज़ एकाध घंटा सफ़र करना होता है. पब्लिक प्लेस पर व्यवहार
और बॉडी- लैंग्वेज के अपने नियम-क़ानून हैं. ‘अच्छी लड़की’ की तरह पेश आने के बंधन हैं जो मेट्रो के लेडीज़ कम्पार्टमेंट में
नहीं हैं. ऐसी परिस्थिति में शहरी औरतों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अपना कोना मिल
गया है. इसलिए यहाँ आकर हम चैन की सांस लेते हैं.
अब सवाल ये है कि क्या ये अलगाव, लिंगभेद और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या का स्थाई हल बन सकता
है? शायद नहीं. बल्कि ये
लड़के-लड़कियों को एक दूसरे से अलग मानने की प्रवृत्ति को बढ़ाता ही है. ये हमारी
उसी सोच का नतीजा है जो ये कहती है कि लड़की पब्लिक स्पेस में निकली तो छेड़ी ही
जायेगी और लड़का लड़की को देखेगा तो छेड़ेगा ही. समाधान तो इस अलगाव के ठीक उलट
है. लोगों को पब्लिक स्पेस में ज्यादा से ज्यादा लड़कियों की उपस्थिति का आदी
बनाना होगा. जिससे कि ना ही लोग एक ख़ास समय और परिधि के बाहर किसी लड़की को देखकर
उसके बारे में उलटी- सीधी धारणाएं ना बनाएं और ना ही ऐसी परिस्थिति में लड़कियां
खुद को असुरक्षित महसूस करें.
लेकिन ये हल निकालना दिल्ली
मेट्रो की जिम्मेदारी नहीं है. समय, स्थान और संसाधनों का
लिंग आधारित विभाजन मेट्रो ने शुरू नहीं किया. ये तो हमारे समाज में हर जगह है
इसलिए मेट्रो में भी घुस आया है. उन्हें तो सिर्फ एक शॉर्ट-टर्म रणनीति विकसित
करनी थी, छेड़छाड़ की समस्याओं से निपटने की, जो उन्होंने कर दी. उम्मीद करती हूँ कि ये व्यवस्था शॉर्ट-टर्म ही होगी. ‘जनरल’ में महिलाएं भी शामिल हैं
और पब्लिक स्पेस में दिखने वाली लड़कियां पब्लिक सेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं हैं, ऐसी सोच तो हमें मेट्रो से बाहर के समाज में विकसित करनी है. जहाँ इस
तरह के विभाजन के लिए कोई गार्ड या सीसीटीवी कैमरा मौजूद नहीं है. तब शायद ये
गुलाबी रंग के ‘लेडीज़ ओनली’ साइनबोर्ड्स
इतिहास होंगे.
तब तक के लिए मैंने भी इस
गणराज्य की नागरिकता ले ली है.
ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=70934:2014-06-14-06-30-42&catid=21:samaj