Monday, August 31, 2015

दशरथ मांझी के बहाने प्रेम पर कुछ सवाल

प्रेम करने की क्या कोई शाश्वत पद्धति होती है? क्या कोई विरह वियोग में पहाड़ तोड़े उसके लिए ज़रूरी है कि उसकी पत्नी राधिका आप्टे जैसी सुन्दर दिखती हो? इतनी कि उसकी बेदाग़ खूबसूरती और सांवला सलोनापन आपको धूल-घक्कड़ भरे गाँव में चुभे. जब उसके बच्चे, पति सब मिट्टी से पगे हैं, सगी बेटी तक का शरीर कुपोषित और बाल भूसे से हैं, उसी देशकाल में दशरथ मांझी की पत्नी के बाल क्या इसलिए लहलहा रहें हैं ताकि हमें उनका प्रेम विश्वसनीय लगे? दशरथ मांझी जब फ़िल्म में अपनी बालिका वधु को बरसों बाद देख कर कहता है, 'ई फगुनिया है? ई हमार महरिया है?' तो क्या क्या फगुनिया की रूप राशि ही उसके गौना कराने की बेसब्री का एकमात्र उत्प्रेरक रही होगी. क्या उनकी पत्नी राधिका आप्टे की जगह सीमा बिस्वास जैसी दिखती होती मांझी के प्रेम की तीव्रता कुछ कम हो जाती? कुल मिला कर हमने अपने नायक की जगह तो नवाज़ुद्दीन को स्वीकारना शुरू कर दिया है पर नायिका अभी भी खूबसूरत चाहिए. या ये सिर्फ़ फिल्मकार का भ्रम है जो ज्यादा रिस्क नहीं लेना चाहते?

फ़िल्म में मांझी फगुनिया को तरह-तरह से रिझाना शुरू करता है और मेरे अन्दर की एन्थ्रोपोलोजिस्ट मुझे कचोटना. ये कि पुरुष अपनी साधन सम्पन्नता  से औरत को रिझाता है और कमाने खाने के कौशल से विहीन स्त्री उसके इसी कौशल पर रीझती है, लम्बे समय तक हमारी evolutionary psychology की स्वीकृत थ्योरी रही है. यहाँ तक कि इंसान के अलावा दूसरे स्तनपायी जीवों में भी नर-मादा संबंधों को इसी नज़रिए से देखा गया. लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान के हर अनुशासन में यूरोपी पुरुषों का वर्चस्व टूटना शुरू हुआ वैसे-वैसे ये समझ विकसित होने लगी कि प्रेम और विवाह को समझने का ये तरीका यूरोपी समाज के भी एक ख़ास वर्ग से जन्मा है और सिर्फ़ उसी पर लागू भी होता है. फिर भी यह बात तमाम हॉलीवुड फिल्में घूम-फिर कर दोहराती रहीं हैं और शायद नक़ल के ज़रिये हमारी भी लोकप्रिय फ़िल्मों में घुस आयी है. और अब हमारे मानस को ऐसे जकड़े बैठी है कि जाने का नाम नहीं लेती.

जबकि हमारे अपने ही देश में कई वर्ग समाज ऐसे भी हैं जिनमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध इतने ग़ैर बराबरी के नहीं है. ख़ास तौर पर फ़िल्म जिस जाति और वर्ग की बात कर रहा है वहां औरतें ज्यादा नहीं तो कम कुशल भी नहीं होतीं. घर-बाहर पति के साथ उसके बराबर का काम करती हैं. अपने आस-पास की प्राकृतिक संपदा का भी पूरा ज्ञान रखती हैं. ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथों दमन उन्होंने साथ झेला है. उनका पति-पत्नी सम्बन्ध अपेक्षाकृत समता का है. शायद इसीलिये उनके यहाँ दहेज़ के बजाय लड़के वाले लड़की वालों को विवाह के वक्त रुपये देते  हैं. जिस प्रथा को 'बेटी बेचना' कह कर तिरस्कृत किया गया और अंततः दहेज़ उसकी जगह लेता गया.

फ़िल्म में भी वही हुआ है क्यूंकि फ़िल्मकार ने अभिजात्य वर्ग के लिए फ़िल्म बनायी है. ख़ास जाति-वर्ग की विशिष्टताओं के बजाय प्रेम के जमे-जमाये फार्मूले फ़िट कर दिए हैं. ये विडम्बना है कि जो जाति-वर्ग हमारी फ़िल्मों में मुश्किल से जगह पाता है, इस दुर्लभ मौके पर भी उसको 'उच्च' वर्ग के नज़रिए से देखने की कोशिश की गयी है. जहाँ औरत बात-बात पर लजाती है और उसकी साड़ी या चेहरे पर कमरतोड़ मेहनत बाद भी शिकन नहीं आती. शायद मुख्यधारा में जगह पाने की शर्त ही अपने अनूठेपन को भुला देने की है. विविधताओं को समझने और उन्हें सम्मानित जगह देने के बजाय उन्हें सपाट कर देना हमारे सिनेमा की प्रवित्ति रही है. जो लोग मुख्यधारा से कुछ हटकर हैं, उनका जीवन भी शायद कुछ ऐसा ही है. 

Monday, December 29, 2014

लोकप्रिय सिनेमा की अपनी शर्तें हैं



ये महज़ इत्तेफ़ाक ही था कि पी.के. देखने से एक दिन पहले दैनिक भास्कर की वेब साईट पर ‘ऑस्ट्रेलियन दुल्हन लाया बिहार का बेटा’ जैसे किसी शीर्षक पर नज़र पड़ गयी. रिपोर्टिंग के अंदाज़ से यूं लगा कि बिहार ने कोई मेडल जीता है. फिर एक सवाल कौंधा कि अगर बिहार की बेटी ने ऑस्ट्रेलियन दूल्हा ढूंढ लिया होता तो खबर कैसी होती? ये खबर होती भी या नहीं? क्या वजह है कि लव जिहाद की तमाम लफ्फाजियों के बीच हिन्दू नायिका के मुसलमान नायक से ब्याह के उदाहरण हमारे हिन्दी सिनेमा में विरले हैं, इसका उलटा भले ही मिल जाय. पी.के. से पहले ‘टोटल सियापा’ में ही शायद ये घटना हुई है.
इस प्रगतिशीलता के बावजूद अनुष्का के उभरे होंठ खटकते हैं. वो जब नई- नई आयीं थीं तो उन्हें आदित्य चोपड़ा ने कहा था कि ‘तुम बहुत खूबसूरत नहीं हो, इसलिए कम से कम एक्टिंग तो अच्छी करना.’ सौन्दर्य में एकरसता को बढ़ावा देने में आलोचना जनित हीन भावना और कॉस्मेटिक सर्जरी का याराना है. विविधताओं को सेलिब्रेट करने की बात हमारे सौन्दर्य मानकों पर लागू नहीं होती. एक और इत्तेफाक़ के तहत मेरी बुक शेल्फ़ में अगले साल आ रहे अमान्डा फ़िलिपाकी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘द अनफार्चुनेट इम्पोर्टेंस औफ़ ब्यूटी’ का इंतज़ार हो रहा है जो सौन्दर्य मानकों के बारे में हमारी जड़ता पर सवाल उठाता है. हमारी हीरोइनों की लिप/नोज़ सर्जरी (जिसकी खबर का हमेशा खंडन ही होगा) इस सवाल पर सवाल है.
पी.के. फ़िल्म की शुरुआत में ही हीरो-हिरोइन बच्चन की कविता सुनने की तिकड़म भिड़ाने लगते हैं और आप ये सोचने पर मजबूर होते हैं कि इसकी वजह सचमुच हरिवंशराय जी कि कवितायेँ हैं या फिर उनका ‘बच्चन’ होना? वैसे भी मुख्यधारा में लोकप्रियता हमेशा सरलीकरण की शर्त पर ही मिलती है. हिन्दी कवि को सिनेमा में पहचान अमिताभ बच्चन पैदा करने की शर्त पर मिलती है, मैरी कौम को प्रतिनिधित्व प्रियंका चोपड़ा दिखने की शर्त पर मिलता है और भोजपुरी को जगह बड़े सितारों द्वारा एप्रोप्रिएशन की शर्त पर मिलती है. पी.के. की भोजपुरी उतनी ही कच्ची है जितनी कि उसमें शामिल प्रेम कहानी, आमिर का लहजा वैसा ही सतही है जैसे आर्चीज़ से खरीद कर मनाई क्रिसमस की खुशियाँ.
फ़िल्म पर विवाद इसके पोस्टर की रिलीज़ से ही शुरू हो चुका था. नग्नता का उपयोग कला या फिर धर्म में नया नहीं है. आमिर के चरित्र की नग्नता उसकी शुद्धता और इस दुनिया के चाल चलन से अछूते होने का प्रतीक है जो कि फ़िल्म देखने पर ही समझ आ सकता है. पर हमारे पास इतना धैर्य कहाँ था? हमने पोस्टर का कनेक्शन कामोत्तेजना और अश्लीलता से ही जोड़ा जो कि हमारे दिमाग में नग्नता के साथ जोड़ी बनाकर जम चुका है. इस तरह से पी.के. के नंगे एलियन ने हमारे समाजीकरण की प्रक्रिया और जमी-जमाई मान्यताओं पर प्रहार अपने पोस्टर रिलीज़ के समय से ही करने शुरू कर दिए थे.
पर पोस्टर में दिखी संभावनाओं के बावजूद ये एक बेहद साधारण फ़िल्म है. आडम्बर और धर्म के धंधे के ख़िलाफ़ दिए गए तर्क न ही नए हैं और न ही बहुत गहराई तक जाते हैं. हम इन्हें इससे बेहतर और पैने रूप में ‘ओह माई गॉड’ में देख चुके हैं. इस तरह से ये फ़िल्म ओह माई गॉड की अगली कड़ी होने के बजाय उसके बराबर या पीछे ही खड़ी दिखती है. एलियन का कांसेप्ट ज़रूर अनोखा है. हम अपने सामाजीकरण में इतने धंस चुके हैं कि एक उदासीन साक्षी भाव से अपने समाज को देखने के लिए शायद हमें एलियन जितना ही दूरस्थ होना ज़रूरी है. आडम्बर की आलोचना शायद उसकी उत्पत्ति जितनी ही पुरानी है लेकिन फिर भी धर्म का धंधा बदस्तूर जारी है. इसके कारणों की तह तक जाने की कोशिश ‘ओह माई गॉड’ के बाद पी.के. ने भी नहीं की. इंसान के दुखों को धर्म की उत्पत्ति और आडम्बरों को मनोवैज्ञानिक इलाज बताने की ज़रा सी कोशिश फ़िल्म करती है लेकिन ‘तपस्वी जी’ के ज़रिये जो कि फ़िल्म का खलनायक है. दरअसल धर्म के अस्तित्व की पोषक ही जीवन की अनिश्चितताएं हैं जिनका जवाब अक्सर विज्ञान के पास भी नहीं होता. धर्म दुःख मिटा नहीं सकता पर उन्हें भगवान की देन बताकर पीड़ा कुछ कम कर देता है. इसलिए बरकरार है और शायद इसीलिये ये फ़िल्में भी भगवान के अस्तित्व पर सीधे वार करने से बचती हैं.
फ़िल्म पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप उतना ही बचकाना है जितनी आमिर के चरित्र की हरकतें. ये सही है की फ़िल्म में सभी अच्छे- बुरे पात्र ज़्यादातर हिन्दू हैं. लेकिन ये तो लोकप्रियतावादी सिनेमा का कड़वा सच है. हिन्दी फिल्मों के पात्र डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी हों साथ में बड़ी सहजता से ऊंची जाति के हिन्दू पुरुष ही रहें हैं. दूसरा कोई भी धर्म फ़िल्म को सेक्युलर दिखाने के वास्ते दाल में नमक जितना ही आता है. फिर पी. के. में ऐसा होना हमें असहज क्यूं कर रहा है?
सिर्फ़ आडम्बर विरोधी होने के लिए फ़िल्म की तारीफ़ करनी हो तो अलग बात है, वरना फ़िल्म सफ़ेद रंग पहने विधवा का उदास दिखने जैसे स्टीरियोटाइप से लेकर तुरंत ही सफ़ेद कपड़ों में सजी ईसाई दुल्हन का पी.के. के सामने आने जैसे फ़िल्मी संयोगों से भरी पड़ी है. हालांकि इस अति सरलीकरण का एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि फ़िल्म उसी वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है जो बाबाओं के चमत्कार पर निछावर होता है और ‘हैप्पी न्यू इयर’ को करोड़ों की कमाई करवाता है. बाकी धर्म और हिन्दी सिनेमा में ज़्यादा फर्क नहीं है. दोनों में तर्क का इस्तेमाल बिज़नेस के लिए हानिकारक है!

(पी. के. पोस्टर विवाद पर लिखा गया लेख- 'नग्नता की शुद्धता और शौक वैल्यू' http://shwetakhatri.blogspot.in/2014/08/blog-post.html)


Thursday, November 27, 2014

ए.एम्.यू. लाईब्रेरी: जेंडर और स्पेस के कुछ सवाल






निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.

वी.सी. के मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में लड़कियों को आने देने की मनाही के आधे-अधूरे बयान को सुनकर उन पर लिंगभेदी होने का आरोप लगा जो कि आजकल एक संगीन लांछन है. जबकि ये पॉलिसी विश्विद्यालय में काफ़ी समय से है, साथ ही स्नातक तक की छात्राओं के लिए अलग बैठने- पढ़ने की व्यवस्था है. वी.सी. न ही लड़कियों के मामले में गैर- संवेदनशील हैं न ही ये नीति अपने-आप में लिंगभेदी है, कम से कम सक्रिय तौर पर तो नहीं. लेकिन एक बड़ा सवाल जेंडर और स्पेस का है जिसकी जड़ें लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय परिसर से बाहर के समाज में हैं.

समय का चक्र और स्पेस का फैलाव दोनों अपने-अपने तरीके से लिंगभेदी हैं. शाम को धुंधलके के बाद और बस स्टॉप या बैंक जैसी सार्वजनिक जगहों पर लड़कियां कम ही दिखाई देतीं हैं. चंद महानगरों को छोड़ दें तो कालचक्र और स्पेस के इस लिंग आधारित विभाजन का शायद ही कोई अपवाद है. अपनी खुद की कस्बाई परवरिश के अनुभवों से कहूं तो पब्लिक स्पेस लड़कियों के लिए नहीं हैं. यहाँ होने का मकसद उन्हें साफ़-साफ़ जताना होता है कभी अपनी स्कूल यूनिफार्म तो कभी किसी पुरुष के साथ के ज़रिये. ऐसे में लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना आसान बात है बजाय उन्हें पब्लिक स्पेस में पुरुषों जितना ही सहज कर पाना. ये एक अजीब विरोधाभास है- लड़कियां सार्वजानिक जगहों पर जितनी ज्यादा दिखेंगी, उनकी उपस्थिति उतनी ही आम बात होगी. फ़िलहाल उनकी नगण्य उपस्थिति ही इक्का- दुक्का लड़कियों की उपस्थिति को और भी विशिष्ट बना देती है. ये बात उन लड़कियों को चर्चा का केंद्र बनाकर असहज करने के लिए काफ़ी है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि वी.सी. के लड़कियों के माता-पिता से चिट्ठी लिखकर पूछने पर कि ‘क्या वो अपनी बेटी को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में जाने देना चाहते हैं’, सिर्फ़ एक जोड़ा माँ- बाप ने सकारात्मक जवाब दिया.

ऐसे मामलों में नीति निर्धारकों को एक समझौता करना पड़ता है- या तो यथा स्थिति रहने दें या फिर लड़कियों को उनकी अलग जगह देकर कम से कम उन्हें बाहर लाने की एक पहल करें. ज़ाहिर है कि दूसरा रास्ता ही ज्यादा तर्कसंगत है. अलग लाइब्रेरी, मेट्रो में पहला कोच, लेडीज़ बस, महिला पुलिस चौकी और अब आगामी महिला बैंक सब इसी समझौते के अलग- अलग रूप हैं. ये लिंगभेद नहीं बल्कि उसे ख़त्म करने की एक रणनीति भर है. पर दुर्भाग्य से ये नीतियाँ ऐसी दर्दनिवारक दवा बन गयी हैं जिसे खा कर हम अपनी असली बीमारी भूले बैठे हैं. हमारा अंतिम लक्ष्य तो पब्लिक स्पेस में लड़कियों को पूरी तरह समाहित करना ही होना चाहिए था. लेकिन स्पेस विभाजन की नीतियाँ अपनी लोकप्रियता के चलते एक तरह का सुविधाजनक नारीवाद बन गयी हैं. जिन्हें लागू करके कोई भी जेंडर सेंसिटिव नज़र आ सकता है और वाहवाही बटोर सकता है.

उसी तरह से जहां प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में लाने की हो, जहां माता- पिता भी अलग पुस्तकालय की व्यवस्था से ज्यादा सहज महसूस करते हों. वहां विश्वविद्यालय के ऐसा करने पर हाय-तौबा क्यूँ? वी. सी. वही कर रहें हैं जो उनके पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है. मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी पब्लिक स्पेस का ही एक टुकड़ा है, एक संसाधन है जिसका आवंटन वो सामाजिक सन्दर्भों से कटकर नहीं कर सकते. अगर खेल के नियम ही गड़बड़ हों तो उस खिलाड़ी जो क्यों दोष दें जो नियमानुसार खेल रहा है?

एक संसाधन के रूप में समय-स्थान को देखना साथ ही जेंडर के साथ इनका समीकरण समझना दरअसल कभी ज़रूरी नहीं समझा गया. इस समस्या की भी पेचीदगी वही है. स्पेस और समय दोनों ही एक तरह से बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं. इनका फ़ायदा वही उठा सकता है जिसको इनका बेरोक-टोक इस्तेमाल करने की आज़ादी है. जिन पर बंदिशें हैं वो नुकसान में हैं. फ़र्ज़ कीजिये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कोई हाई प्रोफ़ाइल नौकरी है जिसके लिए सुदूर इलाकों में रात- बेरात सफ़र करने की ज़रुरत है. ऐसी नौकरी के लिए समान क्वालिफिकेशन होने पर भी लड़कों को वरीयता दी जायेगी क्यूंकि सामाजिक परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं. समय और स्थान रूपी संसाधनों में असीमित पैठ पुरुष का प्रिविलेज है ऐसे में उन्हें उस पद  विशेष के लिए पुरुष ही ज्यादा उपयुक्त लगेगा. अब उस नौकरी देने वाली कंपनी को लिंगभेदी कहा जाय या समाज को?
अब सवाल यही है कि यथास्थिति को बदलने की पहल कौन करे? ये जोखिम कौन उठाए? इस लाइब्रेरी में लड़कियों की मनाही सीमित जगह की समस्या हल करने का तरीका है लड़कियों के लिए अलग लाइब्रेरी भी सामाजिक परिवेश देखते हुए वाजिब व्यवस्था लगती है. न माता- पिता ऐसी पहल कभी करेंगे और विश्विद्यालय के पास तो लड़कियों की सुरक्षा का एक सर्वव्यापी और सर्वमान्य बहाना है ही. किसी भी सन्दर्भ में लड़के- लड़कियों का मुक्त रूप से मिल पाना हमारे समाज के लिए गाहे- बगाहे चिंता का विषय बन ही जाता है. लेकिन सवाल माता- पिता की अनुमति से परे छात्राओं की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का भी है. संसाधनों की कमी और अभिभावकों की अनिच्छा को कब तक उन्हें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी से वंचित रखने का बहाना बनाया जा सकता है? गौरतलब है कि लाइब्रेरी में प्रवेश की मांग छात्राओं की तरफ़ से ही आयी थी. उसके बाद वी.सी. साहब ने मानव संसाधन मंत्रालय से लाइब्रेरी का स्पेस बढ़ाने के लिए अनुदान माँगा है जिससे ज्यादा छात्राओं को भी सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जगह दी जा सके. वी.सी. पर ज़्यादा से ज़्यादा यथास्थिति बने रहने देने का इल्ज़ाम लगाया जा सकता है इसे पैदा उन्होंने नहीं किया. ये ज़रूर है की महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग जो शायद बदलाव की पहल करने का माद्दा रखते हैं उनका आत्मसंतोष अक्सर प्रगति में बाधक होता है. और जेंडर के आधार पर समानता फ़िलहाल प्रगति और मानवाधिकार विकास का पर्याय बन चुकी है. 
खबर आ रही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में वी.सी. के ख़िलाफ़  दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने लड़कियों को सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सदस्यता दिए जाने के आदेश दिए दे हैं. वी.सी. साहब का बयान उसके सन्दर्भ के साथ देखा जाय तो नारी विरोधी नहीं था लेकिन सेंट्रल लाइब्रेरी के दरवाज़े लड़कियों के लिए खुलना निश्चय ही लैंगिक समानता की दिशा में अगला कदम है. 

हमें बीमारी का कोई लक्षण दीखते ही जड़ तक जाने के बजाय लक्षण पर वार करने की आदत बन गयी है, किसी सर्वव्यापी समस्या का दोष मढने के लिए बलि का बकरा तलाशने की प्रवित्ति है ताकि अपनी ग्लानि और ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जा सके. कम से कम भारत में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में देर रात रिसर्च लैब में बैठने से लेकर हॉस्टल से देर रात गए बाहर रहने के मामले में लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग नियम हैं. ये सब अलग पुस्तकालय की तरह ही समय और स्पेस के संसाधन पर पुरुष के विशेषाधिकार को सुदृढ़ करते हैं. इस मामले में बहस तो हर विश्वविद्यालय के पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होनी चाहिए. 
पर फ़िलहाल बलि का बकरा ए.एम्.यू. के वी.सी. ही बने!


Sunday, August 10, 2014

नग्नता की शुद्धता और शॉक वैल्यू




हम अजीब विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं. फ़िल्म पी.के. के पोस्टर आते ही एक लहर आमिर खान को न्यूड पोज़ देने की बहादुरी की प्रशंसा की चली तो वहीं दूसरी लहर इस बहाने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के दोगलेपन औए लिंगभेद पर हमले की. जो बॉलीवुड (मय दर्शक) आमिर खान के पोस्टर के लिए नग्न होने को उनका कला के प्रति डेडिकेशन बता रहा है, वही वर्ग शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे के ऐसा करने को पब्लिसिटी स्टंट कहकर फ़तवे जारी करता रहता है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करने वाले किसी को भी निराश नहीं करते. इस जमात ने आमिर पर भी ऑब्सिनिटी ऐक्ट के तहत मुक़दमा ठोंक दिया. अब सबके सुर बदल गए हैं. लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा सनी लियोन ने किया होता तो यही जमात आँखें सेंक रही होती.
इन सब विवादों से इतना तो खुल कर सामने आया है कि नग्न देह भी इस क़दर जेंडर्ड है कि हम पुरुष की देह में बहादुरी और स्त्री की देह में कामुकता ढूंढ ही लेते हैं. पी.के. का पोस्टर मात्र पब्लिसिटी स्टंट है या फिर सचमुच उस फ़िल्म की कहानी की कुंजी, इसका फ़ैसला तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद ही हो सकेगा लेकिन ये पोस्टर सामान्य न्यूड से थोड़ा अलग है. 

इसमें आपकी नज़र सीधे आमिर की नज़र से मिलती है, चेहरे के भाव से स्पष्ट है कि वो कुछ बतलाना चाहता है. इसके समानांतर ‘फ़ीमेल न्यूड’ फ़िल्म या पोर्न में तो क्या, कला के इतिहास में भी ढूँढ पाना मुश्किल है. इनमें चित्रित औरतें ज़्यादातर खोई हुई सी कहीं और देख रहीं होतीं है. आपकी नज़र उनकी नज़र पर नहीं बल्कि सीधे उनके शरीर पर पड़ती है जो कि निरीक्षण के लिए हाज़िर है. कभी अगर नज़र सामने होगी भी तो भाव हमेशा स्त्रियोचित कोमलता या कामुक आमंत्रण के होंगे. आप उन्हें देखे और वो पलटकर आपको, फ़ीमेल न्यूड में ऐसे असहज व्युत्क्रम का सामना नहीं करना पड़ता. नारीवादी चाहे नारी देह की स्वतन्त्रता की जितनी सिफ़ारिश करें लेकिन ज़्यादातर फ़ीमेल न्यूड पुरुष की दृष्टि के लिए बने हैं और वो स्त्री के अपने भावों के बजाय उन्हें देखने वाले की कामेच्छा का प्रतिबिम्ब होते हैं.

लेकिन इन सबसे इतर एक मुद्दा सिर्फ़ नग्नता और उसके विभिन्न निहितार्थों का भी है. मानव के जातिवृत्त और जीवनवृत्त दोनों ही में देखना, सुनने और बोलने से पहले विकसित होने वाली इन्द्रिय है. हम जितना कुछ देख पाते हैं क्या उतना ही और उसे वैसा का वैसा ही कह पाते हैं? दृश्य और भाष्य के बीच का यह फ़र्क ही नग्नता और अश्लीलता के बीच का फ़र्क है. एक बार पढ़ना-बोलना सीख जाने के बाद हम बालसुलभ भोलेपन से दुनिया को नहीं देख सकते. अब हमारे और हमारी आस-पास की दुनिया के बीच हमारे ज्ञान और अनुभवों का पर्दा है. चूंकि बात फ़िल्म के पोस्टर से शुरू हुई है इसलिए एक फ़िल्म का उदाहरण भी यहाँ मौजूं होगा. हाल ही में आयी फ़िल्म ‘आँखों देखी’ के बाऊजी जब से सिर्फ़ अपनी आँखों देखी पर यकीन करने की ठान लेते हैं तब से उन्हें वो चायवाला भी खूबसूरत नज़र आने लगता है जिसे उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा भी नहीं था. हम असलियत नहीं बल्कि असलियत की सांस्कृतिक हस्तक्षेप से बनी छवि देखते हैं. इसलिए नग्नता हमारे लिए सिर्फ़ निर्वस्त्र होने से ज़्यादा कुछ हो जाती है. इसी वजह से तथाकथित सभ्य समाज में इसकी एक शॉक वैल्यू है जिसका उपयोग अलग-अलग तरीके से होता रहा है.


उदाहरण के तौर पर भारतीय सशक्त सेना बलों के द्वारा एफ्स्पा की आड़ में किये जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध मणिपुर मदर्स के न्यूड प्रोटेस्ट या फिर इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाओं का नग्न होकर हल चलाना ले सकते हैं. रूटीन से अलग होने ने ही नग्नता को उसकी शॉक वैल्यू दी है जो हमें कभी कचोटती है तो कभी वीभत्स रस से भर देती है लेकिन हमारा ध्यान खींचने में हमेशा ही सफ़ल रहती है. जहां 'न्यूड बीच' का चलन है या फिर जिन जनजातियों में कपड़े पहनने या वक्ष ढंकने की बाध्यता नहीं है, वहां नग्नता पूरी तरह से डीसेक्चुअलाइज्ड है और किसी को चौंकाती भी नहीं है.


न्यूडिटी का एक बहुत महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक अर्थ शुद्धता और प्रकृति से निकटता का भी है. ये संयोंग नहीं है कि ‘पेटा’ (people for ethical treatment of animals) ने शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए लोकप्रिय शख्सियतों के न्यूड या फिर उनकी सिर्फ़ पौधे-पत्तों में लिपटी छवियों का बारहा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा, कोई विरला ही धर्म होगा जिसके किसी भी पवित्र स्थल पर नग्न मूर्तियाँ या छवियाँ न मिलें. दिगंबर जैन, नागा साधू इत्यादि की परम्परा विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में नग्नता को शुद्धता का पर्याय माने जाने को रेखांकित करते हैं. जहां नग्न होना निराभरण और छलरहित होने का पर्याय हैं.

ऐसे में नग्नता को इतनी सहजता से सेक्स और अश्लीलता से जोड़ लेना हमारी मानसिकता की दो परतों को उघाड़कर सामने लाता है. पहला कि नग्नता हमेशा सेक्स का पर्याय है और दूसरा- हमारे लिए सेक्स से जुड़ी चीज़ें हमेशा अश्लील और गंदी ही होंगीं. ये दोनों ही बातें हमारी साइकोलॉजी में घर कर चुकीं हैं. सेक्स एजुकेशन के विरोध के पीछे भी कमोबेश यही मानसिकता है.

दरअसल बाज़ार और उपभोक्तावाद की संस्कृति के लिए नग्नता का कामुकता से जुड़ा अर्थ ही सबसे अनुकूल है. शायद हमारी ही दमित कुंठाओं ने बाज़ार को संकेत दिया होगा जिससे कि नग्नता फ़िल्म या कोई भी उत्पाद बेचने का सबसे सरल साधन बन गयी. शुरुआत जहां से भी हुई हो, फ़िलहाल ये कुचक्र हमारे ऊपर इतना हावी हो चुका है कि हम न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील लगना ही था. एक बार भाषा से बनी कृत्रिम दुनिया का हिस्सा बन जाने के बाद सिर्फ़ दृष्टि बोध की शुद्ध दुनिया में लौटना असंभव है.



Monday, July 14, 2014

फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल

जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे थे. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी- अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके  सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन(?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके है, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. आज बीसवें विश्व कप का विजेता भी जर्मनी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.



ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.

प्रसिद्ध दार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.

कॉमेडी नाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.

फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग 14 अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.
हिन्दी में हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है. इसी तरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर,  आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं.

कपिल शर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.
ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन  प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.

महिलाएं, बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं!

'पत्रकार प्राक्सिस' पर यह लेख.